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________________ वैभव ११५ आविष्कार कर भक्तात्मा अत्यन्त घनसमूह श्यामल कर्म समुदाय को आत्मप्रदेशों से निर्जरित करता है। फलत ध्यान के इस बाह्य आलबन द्वारा निज स्वरूप का दर्शन होता भावनाओ के विशाल अशोक वृक्ष की रचना होते ही परमात्मा को प्रतिष्ठित करने का आसन ध्यान-पटल पर आता है और इसे देख आचार्यश्री कहते हैं सिहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपु. कनकावदातम्। बिम्ब वियद्विलसदशुलतावितान, तुङ्गोदयाद्रिशिरसीव सहमरश्मे ॥२९॥ मणिमयूखशिखाविचित्रे - मणियों की किरणो के अग्रभाग से विविध रग वाले सिहासने सिहासन पर कनकावदातम् स्वर्ण जैसा सुन्दर तव वपु तुम्हारा शरीर तुह्रोदयादिशिरसि उन्नत उदयाचल के शिखर पर वियद्विलसदशुलतावितानम् - जिसकी किरणो का विस्तार आकाश मे शोभायमान हो रहा है (ऐसे) सहस्ररश्मे सूर्य के बिम्बम् इव - बिम्ब याने मडल के समान विभ्राजते - सुशोभित हो रहा है सिहासन का वास्तविक अर्थ है उत्कृष्ट विशुद्ध पुण्यासन। वैसे तो परमात्मा अपने निजस्वरूप मे, परम स्वरूप में सदा प्रतिष्ठित रहते हैं। फिर भी यहां एक विशेष सिहासन पर परमात्मा के विराजने का जो वर्णन है यह भक्त के साथ एक विशेष भावात्मक सम्बन्ध की प्रतीक योजना है। भक्ति की स्थिति में प्रत्येक भक्तात्मा का भावमण्डल परमात्मा के विराजने का एक उत्कृष्ट आसन है। अब हम परमार्थ से इसे देखेगे-मणि याने नाभि और मयूख याने किरणें, शिखा याने अग्रभाग विचित्रे याने विविध। -परमार्थ से इन शब्दों की व्याख्या से अभिप्राय हैमणिपूर चक्र जो नाभि मे स्थित है वहा से भावो की विविध विशेष किरणें प्रस्फुटित होकर ऊपर की ओर आरोहण करती हैं। इन किरणों का अग्रभाग हृदय को छूता हुआ पूरी चेतना मे फैल जाता है। ऐसा यह भक्ति भाव का सिहासन जो नाभि मे स्थित है उस पर भक्तात्मा परमात्मा को प्रतिष्ठित करता है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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