SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मन्ये त्वयि प्रसन्नता ९३ ज्ञान के साथ शुद्ध सम्यग् दर्शन भी होता है। इसकी उपलब्धि को निखारते हुए आगे कहते हैं मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदय त्वयि तोषमेति। कि वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि॥२१॥ नाथ। ___ - हे भगवन्। - मैं मानता हूँ किहरिहरादय - विष्णु और महादेव आदि लौकिक देव दृष्टा - हमारे द्वारा देखे गये एव वर - यह अच्छा ही हुआ येषु दृष्टेषु - जिनके देख लेने पर हृदय - (मेरा) हृदय - आप में तोषम् - सन्तोष को एति - प्राप्त होता है भवता वीक्षितेन - आप को देख लेने से क्या (होता है ?) येन जिससे भुवि भूमण्डल में (पर) अन्य कश्चित् - अन्य कोई (देव) भवान्तरे अपि जन्म-जन्मान्तर में भी मनो - मन को-चित्त को-हृदय को - नही हरति - हरण कर सकता इस गाथा में परमात्मा की उपलब्धि को सतोष का एक अनोखा रूप दे दिया है। इसकी महत्वपूर्ण पंक्ति है दृष्टेषु येषु हदयं त्वयि तोषमेति तुम्हें देख लेने पर हृदय में सतोष होता है। सतोप सदा प्रसन्नता लाता है। योगिराज । आनदघनजी ने कहा किम्
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy