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________________ ९२ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि क्या आवश्यकता है, पर अभी तो सिर्फ साधना के बीज बोये हैं। तू नही बरसेगा, तेरी कृपा नही होगी तो इस भयानक दुष्काल मे ये बीज सड़ जायेगे, जल जाएगे। परमात्मा की इस प्राप्ति की आवश्यकता को और विकसित करते हुए मुनिश्री कहते हैं ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाश, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु। तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥ २० ॥ कृतावकाशम् - अनन्त पर्यायात्मक पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञानम् - केवलज्ञान यथा - जिस प्रकार त्वयि - आप मे विभाति - शोभायमान है तथा - वैसा (उस प्रमाण से) हरिहरादिषु - हरिहरादिक अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदि मे नायकेषु -- नायको मे, लौकिक देवताओ मे न एवम् - वैसा है ही नही, अर्थात् सर्वथा ही नही स्फुरन्मणिषु - झिलमिलाती मणियो मे (महान रत्नो मे) तेज - दीप्ति, कान्ति, चमक-दमक यथा महत्त्व याति जैसा महत्व प्राप्त करते हैं किरणाकुलेऽअपि __ - रश्मि राशि से व्याप्त होने पर भी काच शकले - कॉच के टुकड़ो मे-कॉच के हिस्सो मे - तो न एवम् - प्राप्त ही नही करता कृतावकाश शब्द यहा बडा महत्वपूर्ण शब्द है। कृत याने किया है। अवकाश के यहा दो अर्थ घटित होते हैं १ प्रकाश और २ अवसर (Chance)। हे परमात्मा! अवसर प्रदान करनेवाला जैसा ज्ञान तुझ मे सुशोभित होता है वैसा अन्य मे नही होता है, क्योंकि तुझ मे प्रकट यह ज्ञान दूसरो के ज्ञान को मुख्य अवतरण बन जाता है। परमात्मा का ज्ञान अन्य के अज्ञान को हटाने का अवसर है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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