SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___ हमारी आत्मा स्वय एक सूर्य है जो सदा अस्तित्वमय है। शाश्वत, नित्य और ध्रुव है। योग के अनुसार शरीर मे षट्चक्र हैं। इनमे मणिपूर चक्र जो नाभिस्थान मे रहता है इसे सूर्यचक्र भी कहते हैं। मानवीय प्राण नाभिकेन्द्र से स्पंदित होते हैं। समस्त प्राणधारा विशेष ऊर्जा से व्यवस्थित रहती है। “नमो अरिहताण" या "अहं" की विशेष ध्वनि से साथ श्वासोश्वास को विधियुक्त मणिपूर या सूर्यचक्र मे पूरित करने से हमारी अत तरगो का विशेषत बाह्य प्रकाश तरगो के साथ सबध स्थापित होता है। मणिपूर चक्र का भक्तामर के साथ के सबध को हमने स्तोत्र की प्रथम गाथा के विवेचन मे भी सयोजित देखा था। ____ मन के सस्कार मणिपूर चक्र से सयोजित होते हैं। बाह्य वातावरण का प्रभाव मन पर पडता है, इससे हमारे मन के सस्कारो मे परिवर्तन आता है। सर्वथा विकारो से रहित आत्मा अनायास इस विकारी दुनिया का प्रवास करने निकलता है। इसी के द्वारा हममे क्रोधादि विकार रूप कषाये प्रकट होती हैं। सर्वथा शब्द, रूप, स्वादादि में सतत रमनेवाले इन भावो का परिवर्तन कैसे सभव हो सकता है ? इसका उपाय साधना मे सस्कार परिवर्तन से बताया है। यह सूर्य चन्द्र से सम्बन्धित है। यदि हम सूर्य या मणिपूर चक्र मे स्पंदित प्राण धारा की तरगो का सबध किसी शान्त, विकार रहित तरगो से सयोजित कर देते हैं तो सस्कारो मे परिवर्तन आ जाता है। और, सस्कारो का परिवर्तन हमारे जीवन के समस्त क्रियासूत्रो का परिवर्तन है। ऐसी शात, विकार रहित तरगे मात्र परमात्मा वीतराग प्रभु मे ही निहित हैं, इसी कारण साधना मे हम इन्हें परम आराध्य देव मानते हैं। मत्र और ध्यान साधना की विशेष विधि से बाह्य तरगों मे प्रवाहित सस्कार अतरग मे परिवर्तित किये जा सकते हैं। यह परिवर्तन आत्मवृत्ति का परिवर्तन है। वृत्ति का परिवर्तन ही वास्तविक परिवर्तन है। परमात्मा की परम प्रसन्नता का वह विशेष पात्र बन जाता है। उसकी वे विशेष निष्क्रिय क्षमताएँ सक्रिय हो जाती है। आत्मा द्रव्यरूप से नित्य है, अस्तित्वमय है। फिर भी विभिन्न पर्यायो मे वह परिवर्तित होता रहता है, बदलता रहता है। यह सदोदित ही है। इसका अस्त नही होता। फिर भी अज्ञान के कारण भ्रामक धारणा मे दैहिक-जन्म-मृत्यु आदि को जीव स्वय की जन्म मृत्यु मानता है। इसलिए महायोगी श्रीमद् राजचद्रजी ने कहा है "देह-जीव एकरूप भासे छे अज्ञान वडे क्रियानी प्रवृत्ति पण तेथी तेम थाय छे, जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुख, मृत्यु, देह नो स्वभाव जीव-पद मा जणाय छे जड़ ने चेतन बनने . परमात्मा का ध्यान हमें इस भ्रमपूर्ण मिथ्यादर्शन से मुक्त कर सहज आत्मदशा मे सयोजित करता है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy