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________________ प्रसन्नता ८७ १ यह अस्त होता है। २ राहु से ग्रसित होता है। ३ बादलो के उदर में इसका महाप्रभाव अवरुद्ध हो सकता है। ४ यह दिन मे प्रकाश देता है, रात में नही। यह खुले स्थानो को पूर्ण रूप से आलोकित करता है, आच्छादित स्थानो को नही। अब इस सामान्य सूर्य की परमात्मारूप सूर्य के साथ तुलना कर इन दोनों सूर्यों का हमारी अपनी चेतनसृष्टि पर होने वाले प्रभाव को देखेंगे। हे विश्वविभु आप सूर्य से भी अधिक महिमा को धारण करने वाले हो क्योंकि सूर्य मे पाये जाने वाले चारो अभाव आप मे सम्पूर्ण भावरूप हैं। १ सूर्य उदय भी होता है अस्त भी होता है परतु हे प्रभु। आप कभी अस्त नही होते हो। केवलज्ञान पूर्ण है। इस पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में कभी अभाव नही आता है। क्योंकि आप शाश्वत हो, नित्य हो, ध्रुव हो। २ राहु ग्रह से सूर्य ग्रसित होता है जिसे ससार ग्रहण कहता है। हे परमात्मा। ससार के किसी भी जड़ परमाणु से आप ग्रसित नही होते हो। सर्वथा द्वेष से रहित होने से आपका कोई दुश्मन नही है। इसलिए आपके आत्मतेज को अवरुद्ध करे ऐसा कोई राहु इस सृष्टि मे नही है। ३ सघन बादलो के समूह मे सूर्य का प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है। परमात्मा। आप अनिरुद्ध हो। सर्वथा कर्म रहित हो। कर्मरूपी बादलो का अश मात्र भी आपको अब रोक नही सकता है। आपका परम चैतन्य सूर्य नित्य आवरण रहित होता है। ४ सर्व दूषणो से रहित है परमात्मा। जागतिक सूर्य एक साथ सृष्टि के कुछ विभाग को आलोकित करता है लेकिन आप समस्त लोकालोक को एक ही साथ आलोकित करते हो। इन विशिष्टताओ के कारण आपको “आइच्चेसु अहिय पयासयरा" सूर्य से भी अधिक प्रकाश करने वाला माना है। इन दोनो सूर्यों के स्वरूप का विश्लेषण करने पर एक प्रश्न होता है कि जगत का सूर्य कुछ समय, क्षेत्र या अस्त की मर्यादा मे बधा हुआ भी कुछ समय, कुछ क्षेत्र या अस्तित्व की स्थिति मे आवरण रहित अवस्था मे हमारे दैहिक और मानसिक अवतरणो में परिवर्तन और परिवर्धन लाकर हमे प्रसन्नता प्रदान करता है, परतु जिन परमात्मरूप सूर्य की महिमा की हम चर्चा करते हैं वे हममे क्या परिवर्तन कर सकते हैं ? हमारी मानसिक प्रसन्नता को कैसे वर्धमान कर सकते हैं ? उनके इस महत्त्व का स्वीकार भी कर लें, परतु उनका हमारे साथ क्या सम्बन्ध है ? इसे समझे बिना भक्तामर स्तोत्र से हमारा कोई सबध स्थापित नहीं होता है।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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