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________________ सूक्ति कम तीन सौ उनचालोस २३५ मनुष्य तभी तक मनुष्य है, जब तक उस का अन्त'करण कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक कर सकता है। २३६. विषय-सेवन को तृष्णा (लालसा) से इन्द्रियो का निवृत्त हो जाना ही वास्तविक सुख है। २३७. यपाषंज्ञान प्राप्त होने पर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है-अर्थात सम्यग् ज्ञान हो जाने पर मोक्ष दूर नहीं है। २३८. मनुष्यत्व, मुमुसत्व (मुक्त होने को इच्छा), और महान् पुरुषो का सग ये तीनों भगवत्कृपा से प्राप्त होने वाली बड़ी ही दुलंम वस्तु है। २३६ कम चित्त की शुद्धि के लिए ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि) + लिए नही, वस्तु-सिटि तो विचार से ही होती है, करोडो कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता। २४०. पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्रादि भी हो सकते हैं, परन्तु भव बन्धन से पाने वाला अपने से भिन्न और कोई नही है। २४१ शास्त्रो का आन्द-जाल तो चित्त को भटकानेवाला एक महान् पन है। २४२. औषध को विना पिये केवल औषध शब्द के उच्चारण मात्र से रोग नहीं जाता, इसी प्रकार अपरोक्षानुभव (प्रत्यक्ष आत्मानुमूति) के विना केवल 'मैं ब्रह्म हूँ यह कहने से कोई मुक्त नही हो सकता। २४१. ससार की अनित्य क्षणभंगुर वस्तुओ मे अत्यन्त वैराग्य का हो जाना हो मोक्ष का प्रथम हेतु है। २४४. अपने-अपने स्वभाव के अनुसार शब्दादि पांच विषयो में से केवल एक-एक से बंधे हुए हरिण, हाथी, पतंग, मछली और भौंरे जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो फिर इन पाचो से जकडा हुआ मनुष्य कसे बब सकता है?
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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