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________________ तीन सौ पन्द्रह सूक्ति कण १०८. शौच ( देहशुद्धि एव चित्तशुद्धि), सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान - ये पाँच नियम हैं । १०६. अहिंसा को प्रतिष्ठा (पूर्ण स्थिति) होने पर उस के सान्निध्य मे सव प्राणी निर्वैर हो जाते हैं । ११०. सत्य की प्रतिष्ठा होने पर सत्यवादी का वचन क्रियाफलाश्रयत्वगुण से युक्त हो जाता है— अर्थात् सत्यप्रतिष्ठ व्यक्ति के वचन अमोघ होते हैं । १११. ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर वीर्यं (शक्ति, बल) का लाभ होता है । ११२. सन्तोष से अनुत्तम (सर्वोत्तम ) सुख का लाभ होता है । ११३. आत्मा मे एक-से-एक विचित्र सृष्टियां है । ११४. असत् से कार्य की उत्पत्ति नही हो सकती, क्यो कि ऐसा कभी कही देखा नही गया है । ११५ साधक अपने गुणो का बखान न करता हुआ वालक की भांति दंभ एवं - अभिमान से मुक्त रहे, क्योकि निर्दम्भता एवं सरलभावना का ही ब्रह्मविद्या से सम्बन्ध है । ११६. किसी बाह्य प्रतीक विशेष मे आत्म-भाव नही करना चाहिए, क्योकि वह प्रतीक वस्तुत अपना अन्तरात्मा नही है । ११७ जहाँ भी चित्त की एकाग्रता सुगमता से हो सके, वही बैठ कर ध्यान का अभ्यास करना ठीक है, साधना के लिए किसी विशेष स्थान या दिशा आदि की कोई प्रतिबद्धता नही है | ११८. ( सचित कर्म ज्ञान से भस्म हो जाते हैं, निष्काम भाव से कर्म करने के कारण क्रियमाण कर्मों का बन्ध नही होता) शेष शुभाशुभरूप प्रारब्ध कर्मों को उपभोग के द्वारा क्षय करके ज्ञानी साधक परमपद (ब्रह्मत्व भाव) को प्राप्त हो जाता है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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