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________________ मनुस्मृति की सूक्तियां दो सौ पिचासी ३०. जो कर्म यूही तिनके तोडने आदि के रूप मे निष्फल अर्थात् उद्देश्यहीन हो, व्यर्थ हो, और जो भविष्य मे दुख'प्रद हो, वह कर्म कभी नही करना पाहिए। ३१. प्रातः काल ब्राह्ममुहूर्त मे जाग कर धर्म और अर्थ का चिन्तन करना चाहिए। ३२. मत्य और प्रिय बोले, अप्रिय सत्य न बोले, प्रिय भी यदि असत्य हो तो न बोले-यह सनातन (शाश्वत) धर्म है । ३३. शुष्क (निष्प्रयोजन) वैर और विवाद किसी के भी साथ नही करना चाहिए। ३४. "जो कर्म एव वात पराधीन है, पराये वशमे है, वह सब दुख है, और जो अपने अधीन है, अपने वश मे है, वह सब सुख है ।" यह सुख दु ख का सक्षिप्त लक्षण है। ३५ सब दानो में ज्ञान का दान ही श्रेष्ठ दान है । ३६. जो सत्कार-सम्मान के साथ दान देता है और जो सत्कार-सम्मान के साथ ही दान लेता है, दोनो ही स्वर्ग के अधिकारी हैं । इसके विपरीत जो अपमान के साथ दान देते और लेते हैं, वे मर कर नरक मे जाते हैं। ३७. अहकार से तप क्षीण (नष्ट) हो जाता है, और इधर उधर कहने से दान क्षीण अर्थात् फलहीन हो जाता है । ३८, जो साधक निर्जन एकान्त प्रदेश मे एकाको आत्मस्वरूप का चिन्तन करता है, वह परमश्रेय ( मोक्ष ) को प्राप्त करता है । ३६. जो व्यक्ति निरर्थक (निरपराध) ही पशु की हत्या करता है, वह पशु के शरीर पर जितने रोम हैं, उतनी ही वार जन्म-जन्म में प्रतिघात (मारण) को प्राप्त होता रहेगा, अर्थात् दूसरो के द्वारा मारा जाएगा। ४०. "मैं यहां पर जिसका मास खाता हूँ, मुझको भी वह ( मा-सः ) पर लोक मे खायेगा।"-मनीषी विद्वान् मास की यह मौलिक परिभाषा (मांसत्व ) बतलाते हैं।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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