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________________ महाभारत की सूक्तिया दो सौ सेंतालीस २४ जिन का वन (ऐश्वयं) समान है, जिनको विद्या एक-सी है, उन्ही मे विवाह और मैत्री का सम्बन्ध ठीक हो सकता है । एक दूसरे से ऊँचे नीचे लोगो मे स्नेहसम्बन्ध कभी सफल नहीं हो सकते है । २५ बहुतो मे कोई एक ही बुद्धिमान और शूरवीर होता है, इसमे सशय नही है। २६ शूरवीरो और नदियो की उत्पत्ति के वास्तविक कारण को जान लेना बहुत कठिन है । २७. यदि मूल आधार नष्ट हो जाए, तो उसके आश्रित रहने वाले सभी लोग स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्ष की जड़ काट दी जाए, तो फिर उसकी शाखाएं कैसे रह सकती हैं। २८. कष्ट सहे विना-अर्थात् अपने को खतरे मे डाले बिना मनुष्य कल्याण का दर्शन नहीं कर सकता । २६ दूसरो को मर्मघाती चोट पहुँचाए बिना, अत्यन्त कर कम किए बिना तथा मछलीमारो की भांति बहुतो के प्राण लिए विना, कोई भी बड़ी भारी सम्पत्ति अर्जित नहीं कर सकता। ___ ३० जव तक अपने ऊपर भय (खतरा) न आए, तभी तक डरते हुए उसको टालने का प्रयत्न करना चाहिए । परन्तु जब खतरा सामने आ ही जाए, तो फिर निडर होकर उसका यथोचित प्रतिकार करना चाहिए । ३१. जो अपने प्रति किये हुए उपकार को प्रत्युपकार किये विना नष्ट नही होने देता है, वही वास्तविक असली पुरुप है। और यही सबसे बड़ी मानवता है कि दूसरा मनुष्य उसके प्रति जितना उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्य का प्रत्युपकार करदे । ३२ घन की इच्छा सबसे बडा दु.ख है, किन्तु धन प्राप्त करने मे तो और भी अधिक दुःख है । और जिसकी प्राप्त धन मे आसक्ति होगई है, धन का वियोग होने पर उसके दुःख की तो कोई सीमा ही नहीं होती। ३३. क्षत्रिय बल तो नाममात्र का ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेज जनित वल हो वास्तविक बल है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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