SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 663
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाल्मीकि रामायण की सूक्तिया दो सौ तेतीस के २६. क्रूर, लोगो मे निन्दित, पापी मनुष्य ऐश्वयं पाकर भी जड से कटे वृक्ष समान अधिक समय तक स्थिर नहीं रह सकते । २७ जव लोगो का दुर्देव से प्रेरित विनाश होना होता है, तो वे काल के वश मे होकर विपरीत कर्म करने लगते हैं । २८. ( सीता की रावण के प्रति उक्ति ) - हे राक्षस । यह शरीर जड़ है, इसे चाहे वाधकर रख अथवा मार डाल | मुझे इस शरीर एव जीवन की रक्षा का मोह नही है, मुझे तो एकमात्र प्रपने धर्म की हो रक्षा करनी है । २६. ( सोता के अपहरण होने पर शोकाकुल हुए राम से लक्ष्मण ने कहा ) - हे मायं । उत्साह ही वलवान है, उत्साह से बढकर दूसरा कोई वल नही है । उत्माही मनुष्य को इस लोक मे कुछ भी दुर्लभ नही है । ३०. उत्साही पुरुष बडे से बडे जटिल कार्यों मे भी अवसन्न- दुःखित नही होते । ३१. बुद्धिहीन राजा प्रजा पर ठीक तरह शासन नही कर सकता । ३२. ( राम ने सीता हरण के बाद सुग्रीव के द्वारा दिखाए गए सीता के आभूषणो को लक्ष्मण से पहचानने को कहा तो लक्ष्मण ने उत्तर दिया ।) मैं माता सीता के न केयूरो ( वाजूबन्दो) को पहचान सकता हूँ और न कुण्डलो को । प्रतिदिन चरण छूने के कारण में केवल नूपुरो को पहचानता हूँ कि ये वही हैं । ३३ जो व्यक्ति निरन्तर शोक करते रहते हैं, उन को कभी सुख नही होता । ३४. सकट आने पर धन का नाश होने पर, और प्राणान्तक भय आने पर जो व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपनी बुद्धि से सोचकर कार्य करता है वही विनाश से बच सकता है |
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy