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________________ उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया दो सो तेईस १४०. अभय ही ब्रह्म है-~-अर्थात् अभय हो जाना ही ब्रह्मपद पाना है । १४१. प्रजापति के उपदेश को ही मेघ के गर्जन मे 'द द द का उच्चारण कर के मानो देवी वाणी आज भी दुहराती है कि 'दाम्यत'-इन्द्रियो का दमन करो, 'दत्त'-ससार की वस्तुओ का सग्रह न करते हुए दान दो, 'दयध्वम्'-प्राणि मात्र पर दया करो । संसार की सम्पूर्ण शिक्षा इन तीन मे समा जाती है, इसलिए तीन की ही शिक्षा दो-दम, दान और दया। १४२. व्याधिग्रस्त होने पर घबराने के स्थान मे यह समझना चाहिए कि यह व्याधि भी एक तप हैं-परम तप है । जो इस रहस्य को समझता है वह परम लोक को जीत लेता है। १४३. सत्य बल मे प्रतिष्ठित है-अर्थात् सत्य मे ही बल होता है, असत्य मे बल नही होता । १४४. प्रातःकाल उठ कर आदित्य को सम्बोधन करते हुए अपने सम्बन्ध में भावना करो कि-हे सूर्य ! तू दिशाओ मे अकेला कमल के समान खिल रहा है, मैं भी मनुष्यो मे एक कमल की भांति खिल जाऊँ । १४५. स्त्री की श्री-अर्थात् शोभा इसी में है कि वह धुले हुए वस्त्र के समान निमल एव पवित्र हो । १४६. पुत्र ऐसा होना चाहिए, जिस के सम्बन्ध मे लोग कहें कि यह तो अपने पिता से भी आगे निकल गया, अपने पितामह से भी आगे निकल गया। १४७. दुष्ट घोड़ो वाले रथ के घोड़ो को जैसे वश में किया जाता है, वैसे ही जागत साधक अप्रमत्त भाव से मन रूपी घोडे को वश में करे । 'द दद' का उपदेश दिया, जिसका यथाक्रम अर्थ है-दम, दान और दया।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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