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________________ उपनिषद् साहित्य को सूक्तिया दो सौ सात ५६ सदैव सत्य बोलना, धर्म का आचरण करना, कभी भी स्वाध्याय मे प्रमाद (मालस्य) मत करना । ६०. सत्य को न छोडना, धर्म से न हटना, श्रेष्ठ कर्मों से न डिगना, राष्ट्र एव समाज की विभूति (साधन, सपत्ति) बढाने में आलस्य न करना, स्वाध्याय (स्वय अध्ययन) और प्रवचन (अधीत का दूसरो को उपदेश) मे प्रमाद मत करना। ६१. माता को देवता समझना, पिता को देवता समझना, भाचार्य को देवता समझना, और द्वार पर आए अतिथि को भी देवता समझना। अर्थात् माता-पिता आदि के साथ देवताओ जैसा आदर-भाव रखना । ६२. जो अनवद्य, अर्थात् मच्छे कर्म हैं, उन्ही का आचरण करना, दूसरो का नही । हमारे भी जो सुचरित (सत्कम) हैं, उन्ही की तुम उपासना करना, दूसरो की नही। ६३. श्रद्धा से दान देना, अश्रद्धा से भी देना, अपनी बढ़ती हुई (धनसम्पत्ति) मे से देना, श्री-वृद्धि न हो तो भी लोकलाज से देना, भय (समाज तथा अयपश के डर) से देना, और सविद् (प्रेम अथवा विवेक बुद्धि) से देना । ६४. ब्रह्म सत्य है, ज्ञान है, अनन्त है। ६५. वाणी जहाँ से लौट आती है, मन जिसे प्राप्त नही कर सकता, उस आनन्दरूप ब्रह्म को जो जान लेता है, वह कभी किसी से भयभीत नही होता। ६६. वह परब्रह्म रसरूप है। तभी तो यह बात है कि मनुष्य जहाँ कही भी रस पाता है, तो सहज मानन्दमग्न हो जाता है । विद्याध्ययन करने के अनन्तर घर लौटनेवाले शिष्य को, दीक्षान्त भाषण के रूप में दिया जाता था।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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