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________________ उपनिषद् साहित्य की सूक्तियां - एक सौ पिचानवे १० सोने के आवरण (ढक्कन) से बाहरी चमक दमक से सत्य का मुख ढका हुआ है । हे पूषन् । (अपना कल्याण चाहने वाले उपासक !) यदि तू सत्य धर्म के दर्शन करना चाहता है, तो उस आवरण को हटादे, पर्दे को उठा दे। ११ वह जो ज्योतिर्मय पुरुष (ईश्वर) है, मैं भी वही हूँ । अर्थात् मुझ मे और उस ईश्वर मे कोई अन्तर नही है। १२ अन्तकाल मे शरीर में रहने वाला प्राणवायु विश्व की वायु मे लीन हो जाता है । आखिर इस शरीर का अन्त भस्म के रूप में ही होता है। अतः हे कर्म करने वाले जीव तू क्रतु को, जो कम तुझे आगे करना है उसे स्मरण कर, और कृत-जो तू अव तक कम कर चुका है, उसे भी स्मरण कर । १३. वहाँ (आत्मा के स्वरूप केन्द्र पर) न आख पहुँचती है, न वाणी पहुँचती है और न मन ही पहुँचता है । जिस का मन से मनन (चिन्तन) नही किया जा सकता, अपितु मन ही जिसके द्वारा मनन-चिन्तन करता है, उसी को तू ब्रह्म जान । जिस भौतिक जगत की लोग ब्रह्म के रूप मे उपासना करते है, वह ब्रह्म नहीं है। १५. जो चक्षु से नही देखता, अपितु चक्षु ही जिसके द्वारा देखती है, उसी को तू ब्रह्म जान ! जिस भौतिक जगत की लोग ब्रह्म रूप मे उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नही है। १६. यदि तू ने यहां-इस जन्म में ही अपने प्रात्मब्रह्म को जान लिया, तब तो ठीक है। यदि यहाँ नही जाना, तो फिर विनाश-ही-विनाश हैमहानाश है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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