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________________ एक सौ उनपचास ब्राह्मण साहित्य को सूक्तियां २०. विद्वान ही वस्तुत. देव हैं । २१. मतिमभिमान पतन का द्वार (मुख) है । २२ सत्य ही श्री (शोभा व लक्ष्मी) है, सत्य ही ज्योति (प्रकाश) है । २३. गृहस्थ पुरुप जब तक पत्नी से युक्त नहीं हो पाता, तब तक अपूर्ण रहता है। २४ माता पुत्र को कष्ट न दे, और पुत्र माता को कष्ट न दे । २५ जो महान् और अभिन्न होते हैं वे ही मित्र होते है और जो मित्र होता है वह किसी की हिंमा नहीं करता है । तथा मित्र की भी कोई हिंसा नही करता है। २६. अयुक्त (अस्थिर) मन से कुछ भी करना सभव नहीं है । २७. पुण्य कर्म (अच्छे कर्म) करने वाले स्वर्ग लोक को जाते हैं। २८ यह पुरुष क्रतुमय--अर्थात् कर्मरूप है । २६. अभय ही स्वर्ग लोक है। ३० समानता ही बन्धुता है। ३१. पाप ही अन्धकार है । ३२. हे प्रभु ! मुझे असत् से मत् की ओर ले चल | मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल | मुझे मुत्यु से अमरत्व की ओर ले चल !
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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