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________________ अथर्ववेद को सूक्तिया एक सौ पेतीस १२८ आचार्य ब्रह्मचारी बालक को उपनयन अर्थात् अपने समीप लाकर अपने विद्याशरीर के मध्य गर्भरूप में स्थापित करता है । १२६. ब्रह्मचारी अपने श्रम एव तप से लोगो को अथवा विश्व की रक्षा करता है। १३० सब के सब देव अमृत के साथ उत्सन्न होते हैं । (देव का अयं दिव्य आत्मा है, और अमृत का अर्थ अमर आदर्श है, अर्थात कभी क्षीण न होने वाले दिव्य आचार विचार ।) १३१. ब्रह्मचर्य (कर्तव्य) और तप (कर्तव्य पूर्ति के लिए किया जाने वाला श्रम) के द्वारा ही राजा अपने राष्ट्र का अच्छी तरह पालन करता है । आचार्य भी अपने ब्रह्मनर्य (नियमो) के द्वारा ही जिज्ञासु ब्रह्मचारी को अपना शिष्य बनाना चाहता है । १३२. ब्रह्मचर्यरूप तप के प्रभाव से ही देवो ने मृत्यु को अपहत किया है, वे अमर हुए है । इन्द्र ने भी ब्रह्मचर्य की साधना से ही देवताओ के लिए स्वर्ग का सम्पादन किया है । १३३ जमे रथचक्र अपनी मध्यस्थ नाभि को सब ओर से आवेष्टित किये रहता है, वैसे ही सब देवता उच्छिष्ट (यज्ञ से अवशिष्ट अन्न अथवा परब्रह्म) मे आश्रित है, अर्थात् उसे घेरे रहते हैं। १३४. ऋत (मन का यथार्थ संकल्प), सत्य (वाणी से यथार्थ भाषण), तप, राष्ट्र, श्रम (शान्ति, वैराग्य), धर्म, कर्म (दानादि), मूत, भविष्य, वीर्य (सामथ्यं), लक्ष्मी (सर्ववस्तु को सम्पत्ति), और बल (सब कार्य सम्पादन करने में समर्थ शरीरगत शक्ति)-ये सब शक्तिशाली उच्छिष्ट मे रहते हैं। शिष्या उपगच्छन्तीत्यर्थः । ६. ब्रह्मचर्यरूपेण तपसा । ७. अपहतवन्तः । ८ स्वर्गम् आभरत-आहरत् । ६ मनसा यथार्थसकल्पनम् । १०. शान्ति. शब्दादिविषयोपभोगस्य उपरति । ११. सर्वकम्मनिवर्तनक्षम शरीरगत सामथ्र्यम् ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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