SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 537
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथर्ववेद को सूक्तियां एक सौ तेरह १४ शाप (माकोश-गाली), शाप देने वाले के पास ही वापस लौट जाता है। १५ जो सदा कार्य करता रहता है, वही अभ्यासी उस कार्य की निष्कृति (पूर्णता-सम्पन्नता) करने की योग्यता प्राप्त करता है । १६ तेरे लिए जल (शान्ति एव क्षमा) के साथ अग्नि (तेजस्विता) कल्याण कारी हो। १७ अपने वरावर वालो से आगे बढ, और परम कल्याण प्राप्त कर । १८. मेरे सन्तप्त होने पर मेरे अन्य साथी भी सतप्त हो, अर्थात् हम सब परस्पर महानुभूति रखने वाले हो । १६ जिस प्रकार आकाश और पृथ्वी कभी नही डरते, इसीलिए कभी नष्ट भी नही होते । इसी प्रकार हे मेरे प्राण | तू भी कभी किसी से मत डर । २० हे परस्पर प्रेम करनेवाले स्त्री पुरुषो। तुम दोनो मिलकर चलो, मिलकर आगे बढो, मिलकर ऐश्वयं प्राप्त करो। तुम दोनो के चित्त परस्पर मिले रहे, और तुम्हारे सभी कर्म परस्पर मिलजुलकर होते रहे। २१. जो तुम्हारे अन्दर मे हो वही बाहर मे हो, और जो बाहर मे हो वही तुम्हारे अन्दर मे हो अर्थात् तुम सदा निश्छल एवं निष्कपट होकर रहो । २२ विश्व के विभिन्न रूप--प्राकृति, जाति एव माचार व्यवहार-वाले प्राणी बाहर मे अनेक रूप होते हुए भी मूल मे एक रूप हैं । २३. यह गृहस्थाश्रम सब प्रकार से परिपूर्ण और कभी ध्वस्त न होने वाली ऐश्वर्य को नौका है । हे गृहपत्नी । तू उसपर चढ़ और अपने प्रिय पति को जीवनसघर्षों के समुद्र से पार कर ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy