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________________ ऋग्वेद की सूक्तिया सत्तावन प्राप्त होता है और उसके शत्र भी मित्र होते जाते हैं। अर्थात् उसके सभी मित्र होते हैं, शत्रु कोई नही । २५५. जो सहायता के लिए आये साथी मित्र को समय पर अन्न आदि की सहायता नही करता है, वह मित्र कहलाने के योग्य नही है। ऐसे लोभी मित्र के घर को छोडकर जब मित्र गण चले जाते हैं और किसी अन्य उदारहृदय दाता की तलाश करते है तो बन्धुशून्य होने के कारण वह घर घर ही नही रहता । २५६. सपन्न व्यक्ति को याचक के लिए अवश्य कुछ-न-कुछ देना ही चाहिए , दाता को सुकृत का लवे से लवा दीर्घपथ देखना चाहिए । जैसे रथ का पहिया इधर उधर नीचे ऊपर घूमता है, वैसे ही धन भी विभिन्न व्यक्तियो के पास आता जाता रहता है, वह कभी एक स्थान पर स्थिर नही रहता । (अत. प्राप्त धन मे से कुछ दान करना ही चाहिए ।) २५७ दान के विचार से रहित अनुदार मन वाला व्यक्ति व्यर्थ ही अन्न (खाद्य सामग्री) पाता है । मैं सच कहता हूँ-एक प्रकार से वह अन्न उसके वध (हत्या) जैसा है, जो गुरुजनो एव मित्रो को नही दिया जाता है । दूसरो को न देकर जो स्वय अकेला ही भोजन करता है, वह केवल पाप का ही भागी होता है। २५८. जैसे प्रवक्ता विद्वान अप्रवक्ता से अधिक प्रिय होता है, वैसे ही दान शील धनी व्यक्ति दानहीन धनी से अधिक जनप्रिय होता है। २५६. कृषिकर्म करने गला हल कृषक को अन्न का भोक्ता बनाता है। मार्ग मे चलता हुमा यात्री अपने चरित्र से ऐश्वर्य लाभ करता है । पुरुप. । ६. सुकृतमार्गम् । १०. मो हि आ उ आवर्तन्ते खलु, एकत्र न तिष्ठन्तीत्यर्थ.। ११. धनानि । १२. दाने मनो यस्य न भवति । १३. केवलपापवान् भवति, अधमेव केवल तस्य शिष्यते, नैहिक नामुष्मिकमिति । १४. संभक्तृतम. प्रियकरो भवति ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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