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________________ ऋग्वेद की सूक्तिया तिरेपन २३८. मुझसे बढकर अन्य कोई स्त्री सुभग ( भाग्यशालिनी) नही है... मेरा भाग्यशाली पति सबसे श्र ेष्ठ है । २३६. अपने तपस्तेज से दुर्जनो ( राक्षसो) को पराभूत कर दो । २४० ( ज्ञानरूप ) अन्धकार विश्व को ग्रस लेता है, उसमे सब कुछ छुप जाता है । परन्तु ( ज्ञानरूप ) अग्नि के प्रकट होते ही सब कुछ प्रकाशमान हो जाता है । २४१. हे इन्द्र । तुम समग्र विश्व के नेत्र हो, नेत्र वालो के भी नेत्र हो । २४२ जो लोग दक्षिणा (दान) देते हैं, वे स्वर्ग मे उच्च स्थान पाते हैं । २४३. दानशील व्यक्ति प्रत्येक शुभ कार्य मे सर्वप्रथम आमंत्रित किया जाता है, वह समाज मे ग्रामणी अर्थात् प्रमुख होता है, सब लोगो मे अग्रस्थान पाता है । जो लोग सबसे पहले दक्षिणा (दान) देते हैं, मैं उन्हे जनसमाज का नृपति (स्वामी एवं रक्षक) मानता 1 २४४. विद्वान् व्यक्ति दक्षिणा को देहरक्षक कवच के समान पापो से रक्षा करने वाली मानते हैं । २४५. दक्षिणा (दान) ही मानवजाति को अन्न प्रदान करती है । २४६. दाताओ की कभी मृत्यु नही होती, वे अमर हैं । उन्हे न कभी निकृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, न वे कभी पराजित होते हैं, और न कभी किसी तरह का कष्ट ही पाते हैं । इस पृथ्वी या स्वगं मे जो कुछ महत्वपूर्णं है, वह सब दाता को दक्षिणा से मिल जाता है | २४७. संकटकाल में देवता लोग दाता की रक्षा करते है ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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