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________________ ऋग्वेद की सूक्तियां इकतालीस १८६ में प्रजा के कल्याण के लिए ही सर्वत्र प्रभुत्व प्राप्त किए बलवान् शत्रु को पराजित करता हूँ, पवि पकड़कर उसे शिलापर पछाड़ता हूँ। १६०. जीवनसग्राम मे मुझे कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता, यदि मैं चाहूँ, तो विशाल पवंत भी मेरी प्रगति मे वाधक नही हो सकते । १६१ जो स्त्री सुशील सुन्दर एव श्रेष्ठ है, वह जनसमूह मे से इच्छानुकूल पुरुष को अपने मित्र (पति) रूप मे वरण कर लेती है । १६२. मेरी इच्छा शक्ति से ही तृणभक्षी हिरण अपने सामने आते सिंह को ललकार सकता है और शृगाल वराह को वनसे भगा सकता है । १६३. एक टेला फैककर मैं दूरस्थ पर्वत को भी तोड सकता हूँ। १६४. कभी-कभी महान भी क्षुद्र के वश में आ जाता है, प्रवद्धमान बछडा भी वृषभ (साड) का सामना करने लगता है । १६५. मार्ग से अनभिज्ञ व्यक्ति मार्ग के जानने वाले से पूछ सकता है, और उसके बताये पथ से अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच सकता है । १६६. मनुष्य को उसकी अपनी दुवुद्धि ही पीडा देती है । ११. निर्गमयति । १२. लोष्टेन । १३. भिनदि । १४. दूरस्थितमपि । १५. युद्धाय गच्छति । १६ वीर्येण वर्तमान । १७. क्षेत्र पथाः, पन्थानमजानन् पुरुष ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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