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________________ ऋगवेद की सूक्तिया १६७ ज्ञानी आत्मा सब सुनता है, सब देखता है । १६८. दाएं और बाएं - दोनो हाथो से दान करो । १६६ अजातशत्रु (निर्वैर) कभी किसी से हिंसित ( विनष्ट) नही होता | १७० तुम हमारे हो, हम तुम्हारे हैं । १७१ मन का ज्ञाता मन का स्वामी होता है । १७२. अपने व्रतो ( कर्तव्यो ) के प्रति सदा जागृत रहो । १७३. गायें अपने दूध से भोजन को मधुर बनाती हैं । १७४ विपरीत बुद्धि वाले अज्ञानीजन डूब जाते हैं, नष्ट हो जाते है । १७७ १७५ पुण्य कर्म वाले व्यक्ति ही जीवन मे मधुरस (सुख) का आस्वादन करते हैं । १७६. हे विद्वन् (कवि ) ! तुम विश्वरहस्यो के ज्ञाता हो, ज्ञान के समुद्र हो । कर्म करने वाले - क्रतु को ही सब लोग चाहते हैं । सॅतीस १७८. मार्गों को पुराने करो, तुम्हारे लिए कोई भी अर्थात् अभ्यस्त एव सुपरिचित होने के कारण मार्ग ( जीवनपथ ) नया न रहे ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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