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________________ ऋग्वेद की सूक्तिया उन्नीस ७१ मैं परमतत्वस्वरूप अग्नि हूँ, ज्योतिर्मय हूँ, मैं परनिरपेक्ष रहकर जन्म से ही अपने दिव्य-रूप को स्वय ही प्रकट करता हूँ। प्रकाश (ज्ञान) मेरा नेत्र है । मेरे मुख मे (प्रिय एव सत्य वचन का) अमृत है। ७२. अन्धकार मे से उत्पन्न होकर भी दिव्य यात्मा ज्योति का वरण करते हैं। ७३. हम पापाचार से दूर रहकर पूर्ण निर्भय भाव मे विचरण करें। ७४. हे मधवन्, वस्तुत गृहिणी (धर्मपत्नी) ही गृह है । ७५. ज्ञानी पुरुष अनानी के साथ स्पर्धा करके अपना उपहास नही कराते है, अश्व के सम्मुख तुलना के लिए गर्दभ नही लाया जाता है । ७६. सब देवो (दिव्य मात्मामो) का महान् पराक्रम एक समान है । ७७ पृथ्वी पर अविचल भाव से खडे पर्वतो को कोई झुका नही सकता है । ७८ काली गौ भी पुष्टिकारक एव प्राणदाता अमृतस्वरूप श्वेत दुग्ध के द्वारा मनुष्यो का पोषण करती है । ७६. अग्नि (उत्साह एव दृढ सकल्प का तेज) के प्रदीप्त होते ही भूतल पर स्वर्ग (अथवा सूर्य) उतर आता है । ८०. विद्वान् सब आशामओ (दिशाओ अथवा कामनामओ) को पार करने मे समर्थ हैं। ४ वाजिना वागीशाः । ५. अस्यति क्षिपति सर्वानित्यसुर. प्रबलः, तस्य भावोऽसुरत्व प्राबल्य महदेश्वयंम् । ६ रुशता-श्वेतेन धासिना-प्राणिना धारकेण जामर्येण-जायन्ते इति जा प्रजास्ता जा मर्येण अमरणनिमित्त न पयसा ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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