SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋग्वेद की सूक्तिया ५२ यह महान् ( विराट् ) पृथ्वी मेरी माता है । ५३. यह वेदि (कर्म करने का स्थान ) ही पृथ्वी का अन्तिम छोर है, यह यज्ञ ( कर्तव्य सत्कर्म) ही संसार की नाभि (मूलकेन्द्र ) है | पन्द्रह ५४. ब्रह्मा (विद्वान् प्रवक्ता ) ही वाणी का परम रक्षक है, अधिष्ठाता है । ५५ में नही जानता कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ ? क्योकि मैं मूढ और विक्षिप्त चित्त हूँ, अर्थात् वहिमुख हैं, जब मुझे सत्य ज्ञान का प्रथम उन्मेष होता है अर्थात् में अन्तर्मुख होता हूँ, तभी में तत्व वचनो के स्वरूप दर्शन का ममं समझ पाता हूँ | ५६ अमर ( आत्मा ) मरणधर्मा (शरीर ) के साथ रहता है । वह कभी अन्नमय शरीर पाकर पुण्य से ऊपर जाता है, कभी पाप से नीचे जाता है । ये दोनो विरुद्ध गति वाले संसार मे सर्वत्र एक साथ विचरते हैं । पामर संमारी प्राणी उनमे एक (मत्यं देह) को पहचानता है, दूसरे ( अमत्यंआत्मा) को नही । [ जीव अमर है, शरीर मरणशील । अज्ञानी शरीर को तो जानता है, पर जीव के विषय मे भ्रम मे पडा है । ] ५७. जो ऋचाओं मे रहे हुए (आत्मा के ) दिव्य सत्य को नही जानता, वह ऋचाओ से क्या करेगा, क्या लाभ उठाएगा ? जो इस दिव्य सत्य को जानता है, वही स्वस्वरूप मे स्थित होता है | १८. हम सब भगवान् (ऐश्वर्यशाली ) हो । ५६. सत्य एक ही है, विद्वान् उसका अनेक तरह से वर्णन करते हैं । अशुक्ल कर्म कृत्वा अघोगच्छति । ४. प्राङेति कध्वं स्वर्गादि लोक प्राप्नुवति । ५. स्वधा शब्देन अन्नमय शरीर लक्ष्यते, तेन गृहीत' सन् । ६. न जानन्ति ।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy