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________________ जातक को सूक्तिया एक सौ तेरह २८ उद्योगी और अप्रमादी व्यक्ति के अनुष्ठान मे देवता भी सहयोगी होते २६ मालमी को सुस नही मिलता। ___३० हे तात, दो बातो मे ही सब कुछ सार समाया हुमा है-अप्राप्त को प्राप्ति और प्राप्त का संरक्षण ! १ जल्दबाजी में कोई कार्य न तो पारना चाहिए और न करवाना चाहिए । जल्दबाजी में किये गये काम पर मूर्ख वाद मे पछताता है । __३२. प्रमन्नचित्त वाले के साथ ही रहना चाहिए, अपसन्नचिन वाले को छोड देना चाहिए । प्रसन्न व्यक्ति का साथ वैसा ही सुखद है, जैसे जलार्थी के लिए स्वच्छ सरोवर। ३३ जो अपने परिचित मित्रो के माथ उचित सपकं एव सद्व्यवहार नही रखता है, वह पापिष्ठ मनुप्य गाकृति से मनुप्य होते हुए भी वृक्ष की शाखा पर रहने वाले बन्दर के समान है। ___३४ वार-वार के अधिक समर्ग से, ससर्ग के सर्वथा छूट जाने से और असमय को माग से मित्रता जीर्ण हो जाती है, टूट जाती है। ____३५. बहुत लम्बे समय के सवास (पाथ रहने ) से प्रिय मित्र भी अपिय हो जाता है। ___३६ जिस वृक्ष की छाया मे वैठे या सोये, उसकी शाखा को तोडना नही चाहिए। क्योकि मित्रद्रोही पापी होता है । फल वाले महान् वृक्ष के कच्चे फल को जो तोडता है, उसको फल का रम भी नहीं मिल पाता और भविष्य मे फलने वाला बीज भी नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार महान वृक्ष के समान राष्ट्र का जो राजा अधर्म से प्रशासन करता है, उसे राज्य का आनन्द भी नहीं मिलता है और राज्य भी नष्ट हो जाता है।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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