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________________ मुत्तनिपात की सूक्तिया पिच्चासी १५. जो अपनी बडाई मारता है, दूसरे का अपमान करता है, किंतु वडाई के योग्य सत्कर्म से रहित है, उसे वृपल (शूद्र) समझना चाहिए । १६ जाति से न कोई वृषन (पूद्र) होता है और न कोई ब्राह्मण । कर्म से ही वृपल होता है और कर्म से ही ब्राह्मण । १७ ऐसा कोई क्षुद्र (बोछा) आचरण नही करना चाहिए, जिससे विद्वान् लोग बुरा वताएं। १८. विश्व के सब प्राणी सुखी हो । १६. किसी को घोखा नहीं देना चाहिए और न किसी का अपमान करना चाहिए। २० विश्व के समस्त प्राणियो के माथ असोम मंत्री की भावना बढाएँ । २१. सब रसो मे सत्य का रस ही स्वादतर (श्रेष्ठ) है । २२ सम्यक् प्रकार से आचरित धर्म सुख देता है । २३ प्रज्ञामय (बुद्धियुक्त) जीवन को ही श्रेष्ठ जीवन कहा है । २४. मनुष्य पराक्रम के द्वारा दु खो से पार होता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। २५. मनुप्य श्रद्धा से ससार-प्रवाह को पार कर जाता है । २६. कार्य के अनुरूप प्रयत्न करने वाला धीर व्यक्ति खूब लक्ष्मी प्राप्त करता
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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