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________________ मज्झिमनिकाय को सूक्तिया सत्रह १७ सेंघ के द्वार पर पकडा गया पापी चोर जैसे अपने ही कर्म से मारा जाता है, इसी प्रकार पापी जन मरकर परलोक मे अपने ही कर्म से पीडित होते हैं। १८ जो पहले के अजित पाप को वाद मे मार्जित (साफ) कर देता है, वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भांति इस लोक को प्रकाशित करता है। १९. जैसे वढई लकड़ी को सीधा करते हैं, वैसे ही पण्डित अपने को अर्थात् आत्मा को सावते हैं। २०. अप्रमत्त भाव से ध्यान करने वाला साधक विपुल सुख को पाता है । २१ महाराज | जो कायिक आचरण अपनी पीडा के लिए होता है, पर की पोडा के लिए होता है, दोनो की पीड़ा के लिए होता है, उससे अकुशल धर्म (पाप) वढते हैं, कुशल धर्म नष्ट हो जाते हैं । २२. भिक्षुओ । जो भी भय उत्पन्न होते हैं, वे सभी मूर्ख से उत्पन्न होते हैं, पण्डित से नही। जो भी उपद्रव उत्पन्न होते हैं वे सभी मूर्ख से उत्पन्न होते है, पण्डित से नही। २३ भिक्षुओ ! मिथ्या वचन क्या है ? मृयावाद (झूठ), चुगली, कटु वचन और वकवास मिथ्या वचन है । २४. सम्यगसमाधि से ही सम्यग्ज्ञान होता है, सम्यग्ज्ञान से ही सम्यग् विमुक्ति होती है । २५ बड़ी-बडी बाते बनाने वाले एक जैसे लोगो मे, कोई भी अपने को वाल (अज्ञ) नही मानता।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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