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________________ G १ - अविक विस्तार न हो, इसलिए यहाँ सिर्फ सकेत कर रहा हूँ । शेप पाठक स्वय तुलना कर सकते हैं, और साथ ही यथा प्रसग अन्यान्य स्थलो का अनुसवान भी । तुलना की दृष्टि से कुछ स्थल दिए जा रहे हैं अप्पा मित्तममित्त च । अत्ता हि अत्तनो नाथो । ग्रात्मैव ह्यात्मनः वन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः । ( जैन धारा ११३ | ११४) जो सहस्स सहस्स्सारण सगामे दुज्जए जिए । ( वौद्ध धारा ५४ | ३२ ) सुव्वए कम्मइ दिवं । यो सहस्सं सहस्सेन संगामे मानुसे जिने । रोहान् रुरुहुर्मेध्यास. । ( वैदिक धारा २७२१४३) श्रन्नारणी कि काही ? जरा जाव न पीडेइताव धम्म समाचरे । कथा विधात्यप्रचेता | ( जैन धारा २०८१६० ) यावदेव भवेत् कल्पस्तावच्छ्रे यः समाचरेत् । (बौद्ध धारा ५१।२१) ( जैन धारा ६०1५३ ) ( वैदिक धारा २५०१४६ ) ( जैन धारा १०४ | ४३ ) ( वैदिक धारा ११८१४४) ( जैन धारा ८४|१२) ( वैदिक धारा १०1३७ ) यद्यपि में इस विचार का आग्रह नही करता कि सूक्तित्रिवेणी का यह सक नन अपने आप मे पूर्ण है । बहुत से ऐसे सुभापित, जो मेरी दृष्टि मे अभी
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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