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________________ के अमुक अश तक ही आकर रुक गए, कुछ उपनिषद् के तत्वज्ञान तक हो सीमित रह गए और कुछ महाभारत और गीता की सूक्तियो मे ही आकण्ठ निमग्न हो गए । स्थिति यह है कि वेदो के चिन्तन मनन को पुनीत धारा, जो ब्राह्मण, आरण्यक एव उपनिषद् के रमणीय परिपाश्चों को छूनी हुई महाभारत एव गीता में प्रकट हुई है, उसके समग्र दर्शन तथा मौलिक चिन्तन पर प्रकाश विकीर्ण करने वाला कोई एक उपयुक्त सग्रह मेरी दृष्टि मे नही आया। इसीलिए तृप्ति चाहने वाला मन और अधिक अतृप्त हो उठा, बस, यही अतृप्ति इस सूक्ति संकलन मे मुख्य प्रेरक रही है। मैंने प्रयत्न यही किया है कि मूल ग्रन्य और उसके टीका, भाष्य आदि का अनुशीलन करके मौलिक सूक्तियाँ सगृहीत की जाए और भावस्पर्शी अनुवाद भी। अपनी इस अनुशीलन धारा के आधार पर मैं विश्वासपूर्वक यह कह देना चाहता हूँ कि कोई भी सहृदय पाठक सुक्तियो की मौलिकता एव अनुवाद को तटस्थता पर नि सन्देह आश्वस्त हो सकता है । स्वय मुझे आत्मतोष है कि इस बहाने मुझे वेद, आरण्यक, उपनिषद् आदि तथा उनके अधिकृत भाष्य आदि के स्वाध्याय का व्यापक लाभ प्राप्त हुया, जिनके आधार पर वैदिक वाड मय की मूल जीवन दृष्टि को स्पष्ट कर मका। तुलनात्मक प्रसङ्ग __यह निर्णय देना तो उचित नही होगा कि कालदृष्टि से तीनो धाराओ को प्रभवता एक ही है, या भिन्न-भिन्न । किन्तु यह आस्थापूर्वक कहा जा सकता है कि वैदिक, जैन एवं वौद्ध वाड मय की जीवन दृष्टि मूलत एक ही है । ___ जीवन की अध्यात्मप्रधान निर्वेद (वैराग्य) दृष्टि में जनचिन्तन अग्रणी हुआ है, तो उसके नैतिक एवं लौकिक अभ्युदय के उच्च आदर्शों को प्रेरित करने की दृष्टि वैदिक एव बौद्ध वाडमय ने अधिक स्पष्टता से प्रस्तुत की है । यद्यपि जीवन का नैतिक तथा लौकिक पक्ष जैन साहित्य मे भी स्पष्ट हुआ है और अध्यात्मिक निर्वेद को उत्कर्पता वैदिक तथा बौद्ध वाड मय मे भी स्पष्टत प्रस्फुटित हुई है । अत चिन्तन का विभाजन एकान्त नहीं है, और इसी आधार पर हम तीनो धाराओं में एक अखण्ड जीवन दृष्टि, व्यापक चिन्तन की एकरूपता के चन प्राप्त कर सकते हैं। मैंने प्रस्तुत सकलन मे इसी दृष्टि को समक्ष रखा है। भावनात्मक एकता के साथ तीनो धारामो में शब्दात्मक एकता के भी मन पग्ना चाहे तो अनेक स्थल ऐसे हैं, जो अक्षरग समान एवं सन्निकट हैं।
SR No.010614
Book TitleSukti Triveni Part 01 02 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1968
Total Pages813
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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