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________________ श्री देवेन्द्रप्रसादजी के जैन के पत्र २५ विकास करने वाला हुआ है। आपके सत्संग मे-आत्म सम्मेलन द्वारा जो अनिर्वचनीय लाभ मेरी आत्मा को प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उसके लिये कौनसी विनिमय की वस्तु है, जिसे चरणो की सेवा मे भेंट धरूँ, किन्तु तो भी आप ही के प्रेमाभिवादन और मगला शिष से हृदय थल मे शुभि श्रद्धा और , भव्य भक्ति का जो विमल बीजांकुर वपन हुआ है । वही आज दिन आपकी अशेपानुकपा से ऋतु राज की प्रजा वन कर इस तरह पल्लवित और कुसुमित हो उठा है कि अतिशय उत्कट उत्कठा, उग्र उत्साह और लालायित लालसा से ललक कर जी चाहता है कि आपके चरणो में चुनी हुई कलियो की चगेली भर कर चढा आऊ । ____ अपनी सारी शक्तियों को धर्म प्रचार मे व्यय करूगा और आपकी विशद पुण्य मूर्ति अपने हृदय के प्रेम रूपी अर्ध्य पर स्थापित करके गद्गद निष्ट वाणी मे स्तुति करता रहूंगा यह सौभाग्य का विषय है कि शांति सस्थापक तीर्थकर भगवान की कीर्ति कल्लोलिनी की निर्मल तरगो से निमज्जित होकर जैन धर्म का कलेवर धवलित हो गया है और ऐसे लोकोपकारी प्रशस्त धर्म का अनुयायी बनकर इस प्रतारणा मूलक ससार से उद्धार पाने का मार्ग भी आलोक पूर्ण बना लेना एक सहज सुसाध्य कार्य हो गया है । अतएव जब तक यह पुण्य से फलपादप अपनी सौरभ सपत्ति से ससार मे सुख सरसाने की चेष्टा करता रहे, तव तक आप अपनी वाग्धारा से इसका मूल सिंचन करते रहने की कृपा करेंगे । इस आत्मा के पथ प्रशस्ति बने, और सर्वापेक्षा इसके सर्वस्व जीवनावल बन आप बनें यही प्रार्थना है। पूर्ण प्रतीति है कि आप अपनी नित नूतन धार्मिक शिक्षा और उत्तरोत्तर उत्तेजना पूर्ण इस आत्मा मे लोकोत्तर आनन्द अर्जन करने की शक्ति भरते रहेगे । जिसकी सहायता मे यह निजानन्द रसलीन होकर निर्वाण जनित
SR No.010613
Book TitleMere Divangat Mitro ke Kuch Patra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1972
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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