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________________ - पररा- यह वही अवस्था है जो सबसे परे है, जिसके आगे कुछ नही, सब पोछे ही छूट जाता है, कषायमुक्त, अयोगी केवली अवस्था ही ध्यान की परा अवस्था है। मैं समझता ह तन्त्र भी जैन दर्शन से प्रभावित हा होगा। उसमे नौवे गुणस्थान से लेकर तेरहवे गुण स्थान तक की स्थितियो को ही वैखरी आदि नाम देकर ध्यान का विवेचन किया गया है। - वस्तुत. 'योग' अनेक साधनायो का जोड है। इसमे उन अनेक साधनामो का ही बत्तीस योगो के विवेचन के रूप मे ऋमिक विकास प्रदर्शित किया गया है। योगासन- यद्यपि नाथ योगियो ने हठयोग को अपनाते हुए चौरासी आसनो का वर्णन किया है, जैसे पद्मासन, भद्रासन, शवासन, हलासन, उत्तानपाद आसन, वीरासन, स्वस्तिकासन, गोदुहासन, कुक्कुटासन, हस्तिनिपन्दन आदि । नाथो ने आत्मतत्त्व की अपेक्षा शरीर साधना को विशेष महत्त्व दिया है, किन्तु यह स्मरणीय है कि आत्मतत्त्व-शरीर से सर्वथा भिन्न है, शरीर निवास हैं। और प्रात्मा निवासी है। निवासी निवास चाहता है, वह झोपड़ी मे, कच्चे मकान मे, हवेली मे, कोठी मे, महल मे जहा भी उसे सुख मिले वही रह सकता है । वस्तुत. मन.विपरीतता से ही प्रसन्न होता है, झोपडी वाला महल मे जाकर प्रसन्न होता है, किन्तु महलो वाले राजा-महाराजा झोपडियो मे जाकर साधना करते देखे जाते हैं। वनवासी नगरो मे आकर और नगरवासी वनो मे जाकर सुख की अनुभूति करते है । वस्तुत सुख न महल मे है, न योग एक चिन्तन ] [ इक्कीस
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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