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________________ विशेष प्रकाश नही अला, नन्होंने भी ध्यान ना पहनने के साधना-मार्ग का विस्तृत विवेचन किया है किन्तु ध्यान की एकतानता के लिये कुछ प्रदगित नहीं दिया। प्रस्तुत पुस्तक मे उपाध्याय श्री श्रमण जी महाराज ने ध्यान की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन करते हा ध्येय की भी विस्तन व्याख्या की है। पिण्डाय धर्म ध्यान, पदम्य धर्म-ध्यान, पस्थधर्म-ध्यान और रूपातीत-चम-ध्यान की व्यारया के माध्यम ने ध्यान की विधि का जो वर्णन किया है उसको जानकर कोई भी साधक ध्यान का पूर्ण अभ्यास कर सकता है। शुक्ल धान की व्याख्या में योगदर्शन के कैवल्यपाद का समस्त विपय क्षेत्र मे बुद्धिगम्य हो जाता है। योगदर्शन की सविता-समाधि और अवितर्क-समाधि चाहे समझ मे न पाए, किन्तु प्रस्तुत पुस्तक के के द्वारा शुक्लध्यान के अन्तर्गत पृथक्त्व-सविचारी, पृथक्त्वअविचारी, सूक्ष्म-क्रिया-अनिवर्ती, समुच्छिन्न-क्रिया-अप्रतिपातीइन चार पदो की व्याख्या समाधि को महज गम्य बना देती है। तन्त्रशास्त्र मे ध्यान के चार भेदो का वणन किया गया हैवैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और परा। वैखरी-अन्तर के आनन्द को वाणी द्वारा प्रकट करना । मध्यमा-अन्तर के प्रानन्द को कुछ वाणी द्वारा व्यक्त करना और कुछ भीतर ही रहने देना। पश्यन्ती - यही ध्यान की अवस्था है इममे योगी उसे देखता है जो उसका अपना स्वरूप है, जिस स्वरूप से भ्रष्ट होकर वह बाह्य ससार मे उलझ गया है, यही से चेतना की प्रकाशमयी धारा फूटकर आत्मा को सर्वज्ञता की ओर उन्मुख करती है ।बीस] [ योग : एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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