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________________ झोपडी में है, न नगर मे है, न वन मे है। सुख की प्रतीति तो बदलाव मे होती है। शरीर से सम्बन्ध तोडकर आत्मा से सम्बन्ध जोडने मे योग की पूर्णता है, जव योग शरीर से सम्बन्ध ही तोड़ देता है तो उसे शरीर की अपेक्षा ही नहीं रह जातो, फिर शारीरिक मुद्रायो की-यासनो की वह अपेक्षा क्यो रखेगा ? जान की प्राप्ति आसनो पर ही निर्भर होती तो वह सरकसवालो को शीघ्र प्राप्त हो जाता, क्योकि वहा एक ही कलाकार अनेक असाध्य पासनो का प्रदर्शन करता है। तीर्थड्रो और महा साधको ने विभिन्न आसनो में बैठकर ज्ञानोपलब्धि की है। भगवान महावीर गोबुहासन मे बैठ कर ज्ञान प्राप्त करते हैं । गजसुकुमाल कायोत्सर्ग मुद्रा मे जान प्राप्त करते हैं । वस्तुत 'पासन' का कोई महत्व नही है। इसीलिये पतञ्जलि ने कहा "तत्र स्थिर सुखमासनम्' -जिसमे शरीर सुखपूर्वक अवस्थिति प्राप्त करे वही आसन है। यही कारण है पतञ्जलि ने योगासनो की व्याख्या नहीं की। योगनिष्ठ श्री श्रमण जी महाराज ने भी प्रस्तुत ग्रन्थ मे आसनो को महत्व नहीं दिया, उसका वर्णन आवश्यक नही समझा। __ उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी स्वय योगी है, योगनिष्ठ महापुरुप है, योग-साधना उनकी अन्त -अनुभूति है, उसी अनुभूति को उन्होने शब्दात्मक रूप देकर साधको और जैन सस्कृति के जिज्ञासुमो पर महान् उपकार किया है। उनका यह उपकार सर्व-जन-मगलकारी हो यही मेरी भावना है। बाईस] [ योग . एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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