SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधना है।-धर्म-साधना-ही परमात्म-तत्व को पाने का उपाय है। अहिंसा और सयम की आराधना आन्तरिक आचरण है, तप बाह्य, आचरण है। जैसे ग्रीष्म काल मे पीने को 'शीत' जल मिले और रहने के लिए ठडी जगह मिले तब शरीर पर गर्मी का, प्रभाव नही पडता, वैसे ही आन्तरिक आचरण और बाह्य प्राचरण दोनो से आध्यात्मिक समाधि प्राप्त होती है, आते हुए। कर्मों का निरोध होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का-प्रक्षय होता है । । गृहस्थ के उत्तर गुण सात है तोन गुणव्रत और चार : शिक्षाबत । पाच अणुवतो की रक्षा तीन गुणवत करते हैं और गुणतो की रक्षा चार शिक्षाव्रत करते है । मूलगुणो के निकटतम गुणवत है। उनका सक्षिप्त विवरण इस प्रकार है १ दिशा-परिमाण-वत-मनुष्य की दौड सब ओर हो सकती है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर और नीचे छहो दिशामो में मनुष्य चलता है, अत छ दिशाओ की सीमा वाधना अणुवती के लिए अनिवार्य है। ऐसा करने से मर्यादित क्षेत्र से वाहर गमन-ग्रागमन करने का, ' कारोबार करने का, माल मगवाने या भेजने का स्वय निषेध हो जाता है। सीमित क्षेत्र से वाहर जाने की इच्छा स्वय निरुद्ध हो जाती है। । । २ उपभोग-परिभोग-परिमाण-त-किसी वस्तु का एक वार ही उपयोग में लाना उपभोग है और किसी वस्तु का बारम्बार काम मे या उपभोग मे लाना परिभोग कहलाता है। दोनो तरह की वस्तुमो का परिमाण अर्थात् मर्यादा करनी अणुवती के लिए अत्यावश्यक है। इसमे स्नान-मजन के साधनो का, खान-पान के पदार्थो का, स्वदेशी-विदेशी वस्तुओ का, पहनने और बिस्तरे के १४४] [ योग एक चिन्तन
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy