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________________ काम में आने वाले ऊनी-सूती वस्त्रो का, फल-फूलो का, पानी की किस्मो का और चौबीस प्रकार के धान्यो का परिमाण करने पर ही अणुव्रतो का विकास हो सकता है। - .. परिमाणकृत पदार्थों की प्राप्ति उद्योग-धयो से 'ही हो सकती है । उद्योग-धन्धे दो तरह के होते है । प्रार्यविधि से किए जाने वाले और अनार्यविधि से होने वालें । पन्द्रह कर्मादानों का जहा तक हो सके तीन करण और तीन योग से प्रत्याख्यान करना चाहिए क्योकि वे सब अनार्यविधि से किए जाते है। अत. उनका परित्याग करना आवश्यक है। आर्य-विधि से व्यापार करनेवाला अणुव्रती अल्पारम्भी.माना जाता है। छब्बीस बोलो की मर्यादा से और पन्द्रह कर्मादानो-अनार्य-व्यापारो के त्याग करने से इच्छाए बहुत कुछ रुक जाती हैं। .. 5. ३. अनर्थ-दड-विरमणवत-किसी प्राणी को प्रयोजन वश जो दड दिया जाता है वह अर्थ दड है। जो किसी भी प्रयोजन के बिना दर्ड दिया जाता है वह अनर्थ-दड है। किसी का बुरा सोचना, अचार, 'मुरब्बा, घी, तेल,' अतिगर्म दूध, पानी आदि का वर्तन खुला रखना, लिहाज मे आकर अविवेकी को अस्त्रशस्त्र देना, जिससे दूसरे पाप-कर्म मे प्रवृति करे वैसे पापकर्म का उपदेश करना अनर्थ-दड है। अनर्थदंड का परित्याग किए बिना अणुनतो की सम्यक् आराधना नही हो सकती, अत श्रावक के लिये अनर्थ दंड से निवृत्त होना अत्यावश्यक है। - अणुव्रतो की रक्षा के लिए शिक्षाप्रतो की आराधना भी श्रावक के लिए अनिवार्य है । जैसे सर्वाङ्ग शरीर की रक्षा त्वचा करती है और त्वचा की रक्षा जल वायु धूप प्रादि वाह्य साधन करते योग एक चिन्तन ] [१४५
SR No.010605
Book TitleYog Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Shraman, Tilakdhar Shastri
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year1977
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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