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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व "राष्ट्रपति ने प्रसन्नभाव से नमस्कार-मुद्रा में पूछा-"मुनि जी! आपका भ्रमण किस ओर होता है ?" उपाध्याय श्री जी ने उत्तर देते हुए कहा-"जैन साधु तो परिव्राजक हैं। घुमक्कड़ है, अतः वह निष्प्रयोजन कहीं एकत्र चिपक कर नहीं वैठता । आत्म-कल्याण एवं जन-कल्याण की दृष्टि से वह भारत के इस छोर से लेकर उस छोर तक पैदल यात्रा करता है और जन-साधारण से जीवित सम्पर्क स्थापित करके उसे जीवन की सच्ची दिशा की ओर चलने के लिए सत्प्रेरणा प्रदान करता है। उसके पास व्यक्तिगत कोई मठ या सम्पत्ति नहीं होती। धार्मिक स्थानों की सारी सम्पत्ति सामाजिक है, गृहस्थ-वर्ग को ही उसके सारे अधिकार हैं, साधु-वर्ग का उससे कोई सम्वन्व नहीं । वह तो अप्रतिवद्ध तथा अकिञ्चन होकर यत्र-तत्र-सर्वत्र विचरण करता है।" जैन-धर्म की जाति-पांति सम्वन्धी चर्चा चलने पर उपाध्याय श्री जी ने कहा-"जैन-धर्म में जाति-पांति या छुआछूत के लिए तनिक भी स्थान नहीं है। उसका द्वार मानव मात्र के लिए खुला है। उसकी मूल विचारधारा यह है कि समूची मानव जाति एक ही है, उसमें ऊंच-नीच या छोटे-बड़ेपन की भेदभरी कल्पना करना न्याय नहीं कहा जा सकता । जन्मना न कोई ब्राह्मण है और न शूद्र। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-जन्म से नहीं, कर्म से, आचरण से वनते हैं "कम्मुणा वम्हणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । वइसो कम्मुणा ह सुद्दो हवइ कम्मणा ." देश और काल के प्रभाव से जैनों पर भी जाति-पांति के भेदभाव की काली छाया पड़ गई है, उसे धीरे-धीरे साफ करने का सक्रिय प्रयल किया जा रहा है। एक छोटा-सा पुराणपंथी वर्ग जातिवाद की दुहाई देकर जनता की संकीर्ण भावना को उभारना चाहता है, परन्तु मैं समझता हूँ कि बदला हुआ युग उन्हें वास्तविक सत्य को समझने के लिए मजबूर कर देगा। स्वयं मेरे जीवन की एक घटित घटना है। जाति-पांति और छुया-ठूत के क्षुद्र घेरों को तोड़ने के लिए वर्षों से अन्तर्जगत् में ही चिन्तन-मनन चल रहा था। किन्तु वीस वर्ष तक विचार, विचार ही रहे,
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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