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________________ सर्वतोमुखी व्यक्तित्व आचार में परिणत होकर सक्रिय रूप धारण न कर सकें। परन्तु जब एक मुसलमान भाई के यहाँ से-जो कि निरामिष आहारी भी हैआहार लेने का प्रसङ्ग आया, तो जनता में वड़ा विक्षोभ पैदा हुआ। कठिनाइयों की ओर आँखें तरेरते हुए मैंने विचारों को साकार रूप दे ही डाला । अब तो दूसरे साधु भी इस दिशा की ओर गतिशील हैं।" अहिंसा का प्रसङ्ग छिड़ने पर उपाध्याय श्री जी ने सप्राण शब्दों में कहा - "अहिंसा जैन-धर्म का प्राण है । अतः वह उसके अणु-अणु में परिव्याप्त है । जैन-दर्शन में अहिंसा के दो पहलू माने गए हैं—नकारात्मक और स्वीकारात्मक अथवा निषेधात्मक और विधानात्मक । इन दोनों वाजुओं के समन्वय से ही अहिंसा का सच्चा एवं पूर्ण रूप साधक के सामने पाता है । यदि कोई साधक हिंसा से अल्प या बहुत अंशों में निवृत्त हो, परन्तु अवसर आने पर जन-रक्षा या जन-कल्याण की विधायक प्रवृत्ति से उदासीन रहता है, तो वह धीरे-धीरे हिंसा-निवृत्ति द्वारा संचित वल भी गंवा वैठता है । हिंसा-निवृत्ति की सच्ची कसौटी तभी होती है, जव, करुणा या अनुकम्पा की विधायक-प्रवृत्ति का प्रसंग सामने आकर खड़ा होता है। यदि मैं किसी भी देहधारी को अपनी ओर से कष्ट नहीं देता, परन्तु मेरे समक्ष कोई भी प्राणी वेदना एवं पीड़ा से कराह रहा है, असहाय और संकट-ग्रस्त है और उसका कष्ट मेरे सक्रिय प्रयत्न से छूमन्तर हो सकता है या कुछ कम हो सकता है अथवा मेरी सेवा-वृति से उसके धीरज का धागा जुड़ सकता है-ऐसी स्थिति में भी यदि मैं नकारात्मक पहलू को ही पकड़े रहूँ, उसे ही पूर्ण अहिंसा मान बैलूं, तो इसका अर्थ है कि मेरी अहिंसा निष्प्राण एवं निष्क्रिय है। है। निवृति और प्रवृत्ति-दोनों मिलकर ही अहिंसा की पूर्ण व्याख्या करती हैं । निवृत्ति प्रवृत्ति की पूरक है और प्रवृत्ति निवृत्ति की।" . साधु और गृहस्थ की चर्चा पाने पर कवि श्री जी ने बतलाया कि-"साधना की दृष्टि से जैन-धर्म में साधु और गृहस्थ की भूमिका अलगअलग मानी गई. है । इसका यह अर्थ नहीं कि साधु ही श्रेष्ठ है, पूज्य है और गृहस्थ पतित या पापी है। जैन-धर्म वेष-पूजा या वाह्याडम्वर को नहीं, अन्तर-विकास और योग्यता को महत्त्व देता है। वह अन्तविवेक साधु और गृहस्थ दोनों भूमिकाओं में प्राप्त हो सकता है । वेप या लिङ्ग उसमें कोई व्यवधान नहीं डालता। करुणा की सजीव मूर्ति भगवान्
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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