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________________ सर्वतोमुखो व्यक्तित्व एकत्रित होती चली आ रही है। यह एक महान् हर्ष है, कि चलताफिरता सन्त तीर्थ अक्षय तृतीया से अपने भावी जीवन का एक सुमहान् विधान बनाने जा रहा है। यह विधान एक ऐसा विधान होना चाहिए जिसमें सम्प्रदायवाद, पद-विवाद, शिष्य-लिप्सा और गली-सड़ी परम्परा न रह कर, एक समाचारी और मूलतः एक श्रद्धा-प्ररूपणा का भव्य सिद्धान्त स्थिर होगा। क्षय हो, तुम्हारे उस सम्प्रदायवाद की-जिसके लौह आवरण में तुम्हारी मानवता का साँस घुटा जा रहा है। यह एक ऐसा विप-वृक्ष है, जिसके प्रभाव से तुम्हारा दिमाग, तुम्हारा दिल और तुम्हारे शरीर की रग-रग विषाक्त हो गयी है। यह एक ऐसा काला चश्मा है, जिसमें सब का काला ही रंग, एक ही विकृत रूप दिखाता है, जिसमें अच्छे और बुरे की तमीज तो विल्कुल भी नहीं है । सादड़ी के सन्त-तीर्थ में पहुँच कर हमें सब से पहले लौह आवरण का, इसी विष-वृक्ष का और इसी काले चश्मे का क्षय करना है, विनाश करना है। आज के इस प्रगति-शील युग में भी यदि कदाचित् हम इस गले सड़े सम्प्रदायवाद को न छोड़ सके और 'उसे बानरी की भांति अपनी छाती से चिपकाए फिरते रहे, तो याद रखिए-हम से बढ़कर नादान दुनिया में ढूढ़ने से भी न मिलेगा। हम सब को मिलकर एक स्वर से, एक आवाज और परस्पर सहयोग से सम्प्रदायवाद के भीपण पिशाच से लोहा लेना है। विचार कीजिए, आप धन-वैभव का परित्याग करके सन्त बने हैं। अपने पुराने कुल और वंश की जीर्ण-शीर्ण शृङ्खला को तोड़ कर विश्व हितंकर साधु बने हैं। अपनी जाति और विरादरी के घरौदे को छोड़कर गगन-विहारी विहंगम वने हैं। यश, प्रतिष्ठा, पूजा और मानसम्मान को त्याग कर भ्रमण-शील भिक्षु बने हैं। इतना महान् त्याग करके भी आप इन पदवी, पद और टाइटिलों से क्यों चिपक गए हो? इन से क्यों निगृहित होते जा रहे हो ? युग आ गया है, कि आप सब इनको उतार फैको । यह पूज्य है, यह प्रर्वतक है, यह गणावच्छेदक है। इन पदों का आज के जीवन में जरा भी मूल्य नहीं रहा है। यदि हम किसी पद के उत्तरदायित्व को निभा सकें, तो हमारे लिए साधुत्व का
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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