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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व पद ही पर्याप्त है । सन्त-सेना के सेनानी को हम आचार्य कहें, यह वात शास्त्र-संगत भी है और व्यवहार सिद्ध भी। आज के युग में तो साधु और प्राचार्य ये दो पद ही हमें पर्याप्त हैं, यदि इनके भार को भलीभांति सहन कर सकें तो। याद रखिए, यह भिन्न-भिन्न शिष्य परम्परा भी विप की गांठ है। इसका मूलोच्छेद जब तक न होगा, तब तक हमारा संघटन क्षणिक ही रहेगा, वह चिरस्थायी न हो सकेगा। शिष्य-लिप्सा के कारण वहुत से अनर्थ होते हैं। शिष्य-लिप्सा के कारण गुरु-शिष्य में, गुरु-भ्राताओं में कलह होता है, झगड़े होते हैं। शिष्य-मोह में कभी-कभी हम अपना गुरुत्व-भाव, साधुत्व-भाव भी भुला वैठते हैं। हमारे पतन का, हमारे विघटन का और हमारे पारस्परिक मनो-मालिन्य का मुख्य कारण शिष्य-लिप्सा ही है। इसका परित्याग करके ही हम सम्मेलन को सफल बना सकते हैं। अव हमें अन्ध परम्परा, गलत विश्वास सौर भ्रान्त धारणा छोड़नी ही होगी। भिन्न-भिन्न विश्वासों का, धारणाओं का, परम्पराओं का और श्रद्धाप्ररूपणा का हमें समन्वय करना ही होगा, सन्तुलन स्थापित करना ही होगा। आज न किया गया, तो कल स्वतः होकर ही रहेगा। आयो, हम सब मिलकर अपनी कमजोरियों को पहिचान लें, अपनी दुर्वलताओं को जान लें और अपनी कमियों को समझ लें। और फिर गम्भीरता से उन पर विचार कर लें। हम सब एक साथ विचार करें, एक साथ वोलें और एक साथ ही चलना सीख लें। हमारा विचार, हमारा आचार और हमारा व्यवहार-सव एक हो। जीवन की इन उलझी गुत्थियों को हम एक संघ, एक आचार्य, एक शिष्य-परम्परा और एक समाचारी के वल से ही सुलझा सकते हैं। हमारी शक्ति, हमारा वल और हमारा तेज-एक ही जगह केन्द्रित हो जाना चाहिए। हमारा शासन मजबूत हो, हमारा अनुशासन अनुलंघनीय हो । हमारी समाज का हर साधु फौलादी सैनिक हो, और वह दूरदर्शी, पैनी सूझ वाला तथा देश-काल की प्रगति को पहचानने वाला हो।
SR No.010597
Book TitleAmarmuni Upadhyaya Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1962
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, Biography, & Literature
File Size10 MB
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