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________________ - - - - - - [ १५ ] के उपदेश को अपनी २. भाषा में समझ लेते हैं साँप, न्यौला, चूहा, बिल्ली, गाय, बाघ आदि जन्म शत्रु प्राणी भी समवसरण में वैर विष) वृत्ति छोड़ कर भातृभाव धारण करते हैं । अरिहन्त के वचन में जो पैंतीस गुण होते हैं वे औरों के वचन में नहीं होते । जहाँ अरिहन्त विराजमान हात वहाँ मनुष्य आदि की कौन कहे, करोड़ों देव हाजिर होत, हाथ जाड़ खड़े रहते, माक्त करते और अशकवृक्ष आदि अाठ प्रातियों की रचना करते हैं : यह सब अरिहन्त के परमयोग की विभूति है । "याय स्वस्या, परमम् । अप्यक वचनं. धकृत ॥" नातन प्रकाश, श्लोक ३ । ] * “अहिंसाप्रतिष्ठायां तता बरत्यागः ।" [पातजल-योगसूत्र ३५-६६ । ] देना- जैनतरवाश' ए०२। : "अशोकवृहः सुरपुष्पादियध्वनिश्वासरमासनं च । __भामराजुलं दुन्दुभिरातपत्र सत्यानिहायोणि जिनेश्वराणाम् ॥" अर्थात-१. अशावावृधा, २.६वा द्वारा की गई फूला का वधी, ३. दिव्यध्वनि, ४. दवा द्वारा चामों का ढरा बाना, ५. अधर सिंहासन, ६. भाभण्डल, ७. देवों द्वारा वजाई गई दुभि और ८. छत्र, य जिनश्वरों के आठ प्रातिहार्य है। देखें:- बीतरागस्तोत्र' एवं 'पातञ्जलयोगसूत्र का विभूतिपाद।'
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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