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________________ [ १६ ] (२६)५०-अरिहन्त के निकट देवों का आना, उन के द्वारा समवसरण का रचा जाना, जन्म-शत्रु जन्तुओं का आपस में वैर-विरोध त्याग कर समवसरण में उपथित होना, चौंतीस अतिशयों का होना, इत्यादि जो अरिहन्त की विभूति कही जाती है, उस पर यकायक विश्वास कैसे करना ?-ऐसा मानने में क्या युक्ति है ? उ०-अपने को जो बातें असम्भव सी मालूम होती हैं वे परमयोगियों के लिये साधारण हैं। एक जंगली भील को चक्रवर्ती की सम्पत्ति का थोड़ा भी खयाल नही आ सकता। हमारी और योगियों की योग्यता में ही बड़ा फर्क है। हम विषय के दास, लालच के पुतले, और अस्थिरता के केन्द्र हैं। इस के विपरति योगियो के सामने विषयों का आकर्षण कोई चीज़ नहीं; लालच उन को छूता तक नहीं; वे स्थिरता में सुमेरु के समान होते हैं । हम थोड़ी देर के लिये भी मन को सर्वथा स्थिर नहीं रख सकते; किसी के कठोर वाक्य को सुन कर मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं; मामूली चीज़ गुम हो जाने पर हमारे प्राण निकलने लग जाते हैं; स्वार्थान्धता से औरों की कौन कहे भाई और पिता तक भी हमारे लिये शत्रु बन जाते हैं। परम योगी इन सब दोषों से सर्वथा अलग
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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