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________________ [ १४ 1 ज्ञान श्रादि गुण चाहिए। साधुपद के लिये इन गुणों को प्राप्त करना कोई खास जरूरी नहीं है । साधुपद के लिये जो सत्ताईस गुण जरूरी हैं वे तो आचार्य और उपाध्यान में भी होते हैं, पर इन के अलावा उपाध्याय में पच्चीस और प्राचार्य में छत्तीस गुण होने चाहिए अर्थात् माधुपद की अपेक्षा उपाध्यायपद का महत्त्व अधिक, और उपा ध्यायपद की अपेक्षा अ चायपद का महत्व अधिक है। (२५)प्र-सिद्ध तो परोक्ष हैं. पर अरिहन्त शरीधारी होने के कारण प्रत्यक्षा है। इस लिये यह जानना जरूरी है जिसे हम लोगों की अपेक्षा अनिहन्त की शान ग्रादि आन्तरिक शाक्तिया अलौकिक होती है वैसे ही उन की वार अरस्था में भी क्या हम से कुछ विशपता होलानी है ? उल-अवश्य । मनि शकिया पार पूर्ण प्रकट हो जाने के कारण अाहन्त का प्रभाव इतना अलौकिक बन जाता है कि साधारण लोग इस पर विश्वास तक नहीं कर सकत । अरिहन्तका सारा व्यवहार लोकोतारक होता है। मनुष्य.पश.पदी आदि भिन्न २ जाति के जीव आरिहन्त "लोकात्तर चमकार की तब भवस्थितिः । यतो नाहारहारी, गौच वचक्षुषाम् ॥" वीतरागस्तोत्र द्वितीय प्रकाश, श्लोक ८ 1] अर्थात्-[ह गगवन् ! तुम्हारी रहन-सहन आश्चर्यकारक अत एव लोकोत्तर - है. क्या कि न तो श्राप का श्राहार देखने में आता और न नाहार (पाखाना) ।
SR No.010596
Book TitleDevsi Rai Pratikraman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1921
Total Pages298
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size16 MB
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