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________________ "श्रीप्रतापसिंह मित्रों के लिये सूर्य की भांति उनके मनोरथ रूपी कमलों के प्रकाशक रूप में, स्मर-केलि-कुशल-कान्ताओं में कामोपम, सज्जनों के नयनों को इन्दु से आल्हादक तथा नपतियों में इन्द्र की भांति श्रेष्ठता को स्वतः प्राप्त हैं।" "दृष्टो देवैः पार्थ-तुल्यो रणेऽसौ दाने दृष्टः कर्ण एवापरो वा ।। रामः साक्षाद् धीरतायां नौधैदृष्ट: किं वा सप्रतापः प्रतापः ॥ (क० कु० प्र० कु०१८) "प्रतापी प्रताप को देवता लोग रण में अर्जुन के समान और दान में दूसरे कर्ण के समान देखते हैं तथा जनसमुदाय इनकी धीरता के कारण इन्हें साक्षात राम के समान ही देखता है।" "मृगाकोऽयं रङ्कः प्रभवति सपङ्कः सुमनसां दिनेशेऽस्तं याते मलिनमुख एवोदय त च । निशायां धृष्टोऽसौ न हि भवति लज्जावृतमुखो जितो राजन् लोके तव विधुमुखस्य प्रतिभया ॥२॥ ( हे राजा ! तुम्हारे मुखचन्द्र ने प्रतिस्पर्धी इस लौकिक चन्द्र को सर्वथा पराजित । कर दिया है क्योंकि यह बेचारा मलिन मुख लिये सूर्यास्त होने पर उगता है तथा रात्रि में भी लज्जावृत सा पूर्ण प्रकाशित नहीं होता एवं मृगलाञ्छन के कारण सज्जनों को रमणीय भी प्रतीत नहीं होता क्योंकि सज्जनों (सुमनसां पुष्पाणाम् , सज्जनानां च ) को सदैवय, सूर्योदय होने पर भी पूर्ण कान्तिमान् , रात्रि में भी ल्य आभासम्पन्न सदोदित तुम्हारा मुखचन्द्र इसे तिरस्कृत कर रहा है।) "पङ्के रुहमिदमम्बुनि जितलक्ष्मीक निर्माज्जतु भवति । तवमुखचन्द्रप्रभया पृथ्वीतिलक ! प्रतापनिधे ॥२२॥ ( पूर्वोक्त श्लोकानुसार प्रसिद्ध लौकिक चन्द्र से अधिक शोभासम्पन्न मुखचन्द्रयुक्त पृथ्वीपति हे प्रतापनिधि प्रताप ! देखो तुम्हारे इस मुखचन्द्र ने क्या अनथे कर। डाला ? पहले तो प्रकृत चन्द्र की सुषमा का अपहरण किया पुनः इसने कमल की छवि का भी हरण कर उसे श्रीविहीन कर, दिया! अब बेचारा कमल" कान्तिहीन होकर पानी में डूब मरने हेतु नीचे झुका सा जा रहा है। अतः हे प्रतापनिधे! आपके मुखचन्द्र का क्या वर्णन किया जाय ?')
SR No.010595
Book TitleKarn Kutuhal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages61
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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