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________________ ( १४ ) सौरभ सरस पति भौर लौं छक्याई रहै, ____ कहै भोलानाथ मनहर नीक धरनी। इ दीवरनैनी इंदुमुखी बिद भाल जाकै, सदाशिव मंदिर में इंदिरा सी घरनी ॥६॥ भोलानाथ करै सदा, इम अशीप ठाढ़ौ । भट्ट सदाशिव की सदा, जय जय नित बाढ़ौ ।।७।। इसी प्रकार कितने ही अन्य कवियों द्वारा भी इनका यशोगान हुआ है जो इन्हीं के घराने में संगृहीत एक गुटके में लिखित है । ॥ महाराजा प्रतापसिंहजी का जीवन-वृत्त ॥ जयपुर और आमेर के महाराजाओं का इतिवृत्त वीरता और नीतिपटुता के साथ साथ उनके साहित्य-प्रेम, विद्वत्समादरवृत्ति तथा गुणग्राहकता से ओतप्रोत है । महाराजा मानसिंह जब काबुल और बंगाल के अभियानों में नेता बनकर गये तो यश और धन के साथ साथ बहुत सी साहित्यिकनिधि भी वहां से बटार कर लाये थे । जयपुर के सुप्रसिद्ध श्रीगाविन्ददेवजी के मन्दिर में अब भी बंगाल से लाया हुआ विपुल ग्रन्थ-भण्डार खासमोहर में रक्खा बताया जाता है। मिर्जा राजा जयसिह के समय में कविवर बिहारीलाल ( बिहारी सतसई के प्रणेता) के अतिरिक्त कितने अन्य साहित्यकार इनके दरबार में रहते थे यह सब कहने की विशेष आवश्यकता नहीं है । कुलपति मिश्र इन्हीं के समय के एक प्रख्यात कवि थे। इनके पुत्र रामसिह के दरबार में भी कवियों और विद्वानों का खासा जमघट रहता था और वे स्वयं हिन्दी संस्कृत के मार्मिक वरिष्ठ विद्वान् एवं लेखक थे। सवाई जयसिंह के समय में तो जयपर सभी विद्याओं का केन्द्र बन गया था और उसी समय स विद्या के क्षेत्र में जयपुर का नाम 'द्वितीय काशी' के रूप में अद्यावधि सुप्रसिद्ध है। इनके पुत्र ईश्वरीसिंह और माधवसिंह प्रथम के समय में भी थोड़े साहित्य का निर्माण नहीं हुआ। किन्तु, माधवसिंह जी के पुत्र बनिधि उपनामधारी कविवर प्रतापसिंहजी की साहित्यक्षेत्र में जो अक्षय कीर्ति-कौमुदी समुद्भासित है वह युग-युगों तक अम्लान बनी रहेगी। प्रस्तुत नाटक 'कर्ण कुतूहल' के रचयिता महाकवि भोलानाथ यद्यपि माधवसिह प्रथम के समय में ही जयपुर में आ गये थे किन्तु इनके राज्यकाल में उन्हें यहां स्थायी आश्रय प्राप्त हो गया था और अाज तक उनके वंशज यहीं पर बने हुए हैं। सं० १८४० में कवि भोलानाथ को प्रतापसिंहजो ने ही 'महाकवि' को उपाधि से विभपित किया था और इन्हीं के समान अन्य अनेक कवि एवं साहित्यकारों को इनके समय में प्रश्रय प्राप्त हुआ था। कण-कुतूहल नाटक के नायक होने के कारण श्रीप्रतापसिंहजी का जीवन-वृत्त कतिपय शब्दों में नीचे देने का
SR No.010595
Book TitleKarn Kutuhal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages61
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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