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________________ अच्छा स्नेह सम्बन्ध हो गया। उनके पुत्र श्रीनन्दराम शुक्ल हुए जो भोलानाथ शुक्ल के पिता थे। भोलानाथ शुक्ल मनमोजी तबियत के रसिक एवं सहृदय कवि थे । इनके पाण्डित्य की भी अच्छी धाक थी । तत्कालीन गुणाही मुगल सम्राट् बादशाह शाहजहां द्वितीय से इनका अच्छा सम्पर्क था और उसने पांचसदी मनसब की प्रतिष्ठा से भी अपने दरबार में इन्हें सम्मानित किया था। किन्तु ये वहां जमे नहीं । बादशाह के दरबार से इन्हें भरतपुर के राजा सूर्यमल्ल ले आये और कुछ समय ये भरतपुर में रहे। भरतपुर के राजाओं से इनका अच्छा सौहार्द रहा और नवलसिंह आदि के प्रीत्यर्थ वहां इन्होंने अनेक काव्यप्रथों की रचना की । किन्तु वहां भी ये स्थायी रूप से नहीं बस सके और फिर वहां से जयपुर आगये । उन दिनों जयपुर में माधवसिंहजी प्रथम राज्य करते थे, और उनके गुरु एवं प्रमुख परामर्शदाता भट्ट सदाशिष थे। कवि भोलानाथ का राजदरबार में सन्निवेश कराने में भट्ट सदाशिव का प्रमुख भाग रहा होगा--इसीलिये उन्होंने भट्ट सदाशिव एवं माधवसिंह के पुत्र प्रतापसिंह की प्रशास्तिपरक कर्णकुतूहल नामक ग्रन्थ का निर्माण किया है। भोलानाथ कवि के पुत्र शिवदास ने भी महाभारत का भावानुवाद किया था। इनके पौत्र चैनराम भी अच्छे कवि थे-उन्होंने अपने 'रससमुद्र' नामक ग्रंथ में जो शाहपुराधीश्वर श्रीहनुमतसिंह की प्रीत्यर्थ संगृहीत किया था अपना वंशपरिचय इन शब्दों में दिया है: "कान्यकुब्ज द्विज शुक्ल कुल, भये राम यह नाम । अन्तरवेदिहि दिविकुलीहि, तहां कियो सुख धाम ।। इक सरनागत ना तज्यो, तजे सबनि निज गात । तब दिल्लीस खिताब दिय, यह 'ठाकुर' विख्यात ।। तिनके कुल में भी प्रगट, दुर्गादास सुनाम । पंडित पौराणिक भयो, रहे सु ताही टाम || तिनके सुत 'भोपति' भयो, कियो भागरे बास । गुणनिधि जानि नवाब हू, राखे तिन निज पास ।। * श्री मनोहर शुक्ल जी से, जो उक्त कवि के वंशज हैं, ज्ञात हुआ है कि ये व्याकरण एवं साहित्य के विद्वान थे और मञ्जूषा पर उक्त कवि की लिखित टिप्पणी भी पहले विद्यमान थी जो अब अप्राप्त है। * यह मुगल सम्राट औरंगजेब के पांचवें पुत्र कामबख्श का पौत्र मुहीउल. मिलत नामक बादशाह था जो ११७३ हिजरी एवं संवत् १८०१ विक्रमी में शाहजहां द्वितीय के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा था। ( सरकार, लेटर मुगल्स् भा० १ पृ० ६६ ) यद्यपि बादशाह की प्रशस्ति-सम्बन्धी कोई प्रथ या काव्य एवं स्फुट पद्य उक्त कवि के उपलब्ध नहीं हुए हैं तथापि 'रससमुद्र' के उद्धरण से ज्ञात होता है कि इनका उपर्युक्त बारशाह से मच्छ। सम्बन्ध था।
SR No.010595
Book TitleKarn Kutuhal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages61
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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