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________________ 454545454545454545454545454545 विभिन्न प्रमाणों की सूक्ष्म स्थूलता धवला में यह माना गया है कि स्थूल और अल्पवर्णनीय वर्णन पहले किया जाता है। इस दृष्टि से जीव या द्रव्य सर्वाधिक स्थूल है, उसके बाद काल, क्षेत्र व भाव मान का क्रम आता है। फिर भी, प्रमाणक्रम में द्रव्य के बाद क्षेत्र, काल व भाव मान का क्रम है। क्षेत्र की प्ररूपणा काल की तुलना -में विस्तारी से बताई जाती है। वीरसेन स्वामी ने इस मत का खंडन किया है कि सूक्ष्म का अर्थ बहु-प्रदेशोपचित (पर अदृश्य) लिया जावे, क्योंकि अंगुल के असंख्यातवें भाग में असंख्यात कल्पों के समान एक द्रव्यांगुल में अनंत क्षेत्रांगुल होंगे। फलतः द्रव्य प्रमाण को क्षेत्र प्रमाण से सूक्ष्मतर मानना पड़ेगा। उसी प्रकार भावप्रमाण का विस्तार क्षेत्र प्रमाण से भी अधिक मानकर उसका वर्णन अंत में किया गया है। यहां स्थूल की बरीय वर्णनीयता तो समझ में आती है पर द्रव्यप्रमाण अल्पवर्णनीय है, यह मान लेना किंचित् दुरूह लगता है। प्रमाणों की सूक्षम-स्थूलता की चर्चा धवला में पायी गई है, अन्यत्र नहीं। संख्या की गणना दो के अंक से : संख्यात, असंख्यात और अनंत जैन सिद्धान्त के अनुसार, द्रव्यों से संबंधित परिमाणात्मक विवरणों के लिये संख्याओं का उपयोग किया जाता है। जीव शास्त्रों में इनका निरूपण विविध प्रकार से किया जाता है। अनुयोग द्वार में संख्या के आठ भेद बताये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, उपमा, परिमाण, ज्ञान, गणना और भाव । इसे भाव प्रमाण में समाहित किया गया है। इसका कारण अन्वेषणीय है। इन सभी में गणना-संख्या ही सर्वाधिक उपयोगी है और इसका विवरण भी सर्वाधिक है। सामान्यतः संख्या दो प्रकार की होती है-वास्तविक और काल्पनिक। वास्तविक संख्यायें परिमय होती हैं जबकि काल्पनिक असंख्यात व अनंत की संख्यायें उपमेय तथा पराज्ञान-ज्ञेय होती हैं। जैन शास्त्रों में प्रारंभ से ही दोनों प्रकार की संख्याओं का उपयोग हआ है। वर्तमान गणित में अपरिमेय LF संख्याओं का वास्तविक उपयोग उन्नीसवीं सदी से ही हुआ है। वास्तव में संख्या मान का प्रारंभ उस अंक से होता है जिसका वर्ग 47 करने पर उसके मूलमान में वृद्धि हो। इस दृष्टि से एक के अंक को संख्या नहीं माना जाता। फलतः वास्तविक संख्यामान दो से ही प्रारंभ होता है। :इसीलिये परमाणुओं में बंध के लिये द्वधिकता एवं लघुगुणक का प्रथम मूलाचार - दो ही माना गया है। प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 375 16956546554545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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