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________________ ४६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह में दे प्रदक्षिणा बैठो राव। जिनवर देव कियो चित चाव ॥८॥ । द्वैविध धर्म कह्यो समझाय । जासों पाप सर्व जर जाय ॥ खग तहँ आयो एक तुरंत । सुंदर रूप महा गुणवंत ॥९॥ नमस्कार जिनवरको करयो। जयजयकार शब्द उच्चरयो । ताहि देखि अचरज अति कियो । राजा श्रेणिक पूछत भयो ॥२०॥ सेना सहित महा गुणखानि । को यह आयो सुंदर * बानि ॥ याकी बात कहो समझाय । ज्ञानवंत मुनिवर गुरु राय ॥११॥ गौतम बोले बुद्धि अपार । विजयानगर कह्यो। * अतिसार । मनोकुंभ राजा राजंत । श्रीमती रानीको कंत। ॥१२॥ ताका पुत्र अरिंजय नाम ! पुण्यवंत सुन्दर गुणधाम॥ पूरवतप कीनो इन जोय । ताको फल भुगतै शुभ सोय * ॥१३॥ ताकी कथा कहूं विस्तार। जंबूद्वीप द्वीपनिमें सार । भरतक्षेत्र तामें सुखकार । कौशलदेश विराजै सार ॥ १४ ॥ * परम सुखद नगरी तहँ जान । विप्र सोमशर्मा गुणखान ।, । सोमिल्या भामिनि ता कही । दुखदरिद्रकी पूरित मही! ॥१५॥ पूरब पाप किये अति घने । तिनके फल भुगते ही बने ॥ सुन राजा याका विरतांत । नगर नगर सो भ्रमै । * दुखांत ॥१६॥ देश विदेश फिरे सुखआश । तोहु न पावै । * सुक्ख निवास ॥ भ्रमत भ्रमत सो आयो तहां। समोशरण । जिनवरको जहां ॥१७॥ दोहा-अनंतनाथ जिनराजका समोशरण तिहिबार । सुर नर अति हर्षित भये, देख महाद्युतिसार ॥१८॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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