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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह विप्र देख अतिहर्षित भयो । समोशरण बंदनको गयो॥ वंदि जिनेश्वर पूछ सोइ । कहा पाप मैं कीनो होइ ॥ १६ ॥ * दरिद्र पीड़ा रहै शरीर । सो तो व्याधि हरो गंभीर ॥ गण धर कहै सुनो द्विजराय । अनंतव्रत कीजै सुखदाय ॥२०॥ । तबै विप्र बोल्यो कर भाय। किसविध होय सो देहु बताय॥ किसप्रकार या व्रतको करों। कहो विधान चित्तमें धरों ॥ भादवमास सुक्खकी खान । चौदस शुक्ल कही सुखदान ॥ कर स्नान शुद्ध होजाय । तब पूजै जिनवर सुखदाय ॥२२॥ गुरु वंदना करै चितलाय । या विधिसों व्रत लेय बनाय ।। त्रिकाल पूजन श्रीजिनदेव। रात्रि जागरण कर सख लेव * ॥ २३ ॥ गीत रु नृत्य महोत्सव जान । धारा जिनवर करो ५. बखान । वर्ष चतुदश विधिसों धरै । ता पीछे उद्यापन । करै ॥ २४॥ करै प्रतिष्ठा चौदह सार। जासों पाप होइ जर। छार। झारी धौर जु अधिक अनूप । स्वर्ण कलश देवै शुभ । रूप ॥२५॥ दीवट झालर संकल माल । और चंदोवे उत्तम । जाल ॥ छात्र सिंहासन विधिसों करै । तातै सर्व पाप परिहरै । ॥ २६ ॥ चार प्रकार दान दीजिये । जासों अतुल । सुक्ख लीजिये। अंतसमय लेवै सन्यास। तातै मिलै स्वर्गका । वास ।। २७॥ उद्यापनकी शक्ति न होय । कीजै व्रत दूनो। भवि लोइ ॥ विभ कियो व्रत विधिसों आय। सब दुख ताके गये विलाय ॥२८॥ अंतकाल घरके सन्यास । ताते। पायो स्वर्ग निवास ॥ चौथे स्वर्ग देव.सो जान । महाऋद्धि ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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