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________________ ARNAAMnAWAAI * H HA * ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६७ । यह व्रत पुरुष नारि जो करें। तिह दुख संकट भूलि न परै॥ शहर गहैली उत्तम वास । जैनधर्मको जहां प्रकाश ॥ सब श्रावक व्रत संयम धरै। पूजादानसों पातक हरै। उप* देशी विश्वभूषण सही। हेमराज पंडितने कही ॥३९॥ मन वच पढ़े सुनै जो कोय । ताको अजर अमरपद होय ॥ यासों भविजन पढो त्रिकाल । जो छूटै भवके भ्रमजाल ॥४०॥ २४२-अनंतचौदाव्रत कथा। १ दोहा-अनंतनाथ बंदों सदा, मनमैं कर बहु भाव । सुर असुरहि सेवत जिन्हें, होय मुक्तिपर चाच ॥ चौपाई-जंबूद्वीप द्विपनमें सार । लख योजन ताको । विस्तार। मध्य सुदर्शन मेरु बखान । भरतक्षेत्र ता दक्षिण मान ॥२॥ मगधदेश देशों शिरमणी ॥ राजगृही नगरी अति । । वनी ॥ श्रेणिक महाराज गुणवंत । रानि चेलना गृहशोभंत * ॥३॥ धर्मवंत गुण तेज अपार। राजा राय महा गुणसार ॥1 एक दिवस विपुलाचल चीर। आये जिनवर गुणगंभीर ॥४॥ चार ज्ञानके धारक कहे। गौतम गणधर सो संग रहे॥ छह । * ऋतुके फल देखे नैन । वनमाली ले चाल्यो ऐन ॥५॥ हर्ष । १ सहित वनमाली गयो । पुष्पसहित राजा पर गयो ॥ नम स्कार कर जोडे हाथ । मोपर कृपा करो नरनाथ ॥ ६॥ विपुलाचल उद्यान महंत । महावीर जिन तहां बसंत ॥ सुन राजा अति हर्षित भयो। बहुत दान मालीको दयो। ७॥ सप्तध्वनि बाजे बाजंत । प्रभा सहित राजा चालंत ॥1 * - -- * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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