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________________ * K Key RRE वृहज्जैनवाणीसंग्रह . MAnnarnmart 4 - - - - - -- - - - * ॥ १७॥ श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन । वासु पूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन ॥ विमल विमलमति देन अंतगत है अनंत जिन । धर्मशर्मशिवकरण शांतिजिन शांतिविधायिन ॥ १८॥ कुंथ कुंथुमुख जीवपाल अर-1 * नाथ जालहर । मल्लि मल्लसम मोहमल्लमारन प्रचार घर।। मुनिसुव्रत व्रतकारण नमत सुरसंघहिं नमि जिन । नेमिनाथ । जिन नेमि धर्मरथमांहि ज्ञानधन ॥१९॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व । * उपलसम मोक्ष रमापति । वर्द्धमान जिन नमूं बम भवदुःख । कर्मकृत ॥ या विधि मैं जिन संघरूप चउवीस संख्यधर। स्तबूं नमूं हूं बार बार वंदू शिव सुखकर ॥ २० ॥ ५ पंचम वंदनाकर्म। बर्दू मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति । बर्द्धमान अतिवीर बंदि हूं मनवचतनकृत ।। त्रिशलातनुज महेश धीश । विद्यापति बंदूं। बंदी नितप्रति कनकरूप तनु पापनिकंदू * ॥२१॥ सिद्धारथ नृपनंददुददुख दोष मिटावन, दुरित दवा नल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन ॥ कुंडलपुर करि जन्म जगत जिय आनंदकारन । वर्ष वहत्तर आयु पाय सब ही दुख टारन ॥ २२ ॥ सप्तहस्त तनु तुग भंगकृतजन्ममरणभय । बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय ।। देई * उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीवधन | आप बसे शिव माहि ताहि वंदौं मन वच तन ॥ २३॥ जाके बंदनथकी * दोष दुखदूरिहि जावै । जाके बंदनथकी मुक्तितिय सन्मुख - - - - --- -- ------
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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