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________________ * KR-4-KARK82 - * १० वृहज्जैनवाणीसग्रह * समता राखो भाव लग्यो है ।। आर्त रौद्र द्वय ध्यान छोडि * करिहूं सामायिक । संजम मो कब शुद्ध होय यह भाववधा यक ॥ ११॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि वायु चउकाय वनस्पत । पंचहि थावरमाहिं तथा त्रस जीव वसैं जित॥1 * वेइंद्रिय तिय चउ पंचेंद्रियमांहि जीव सब । तिनौं । क्षमा कराऊं मुझपर छिमा करो अब ।। १२ । इस अवसरमें । । मेरे सव सम कंचन अरु तृण । महल मसान समान शत्रु । अरु मित्रहिं सम गण ।। जामन मरण समान जानि हम समता कीनी । समायिकका काल जितै यह भाव नवीनी ॥१३॥ । मेरो है इक आतम तामें ममत जुकीनो । और सबैं मम भिन्न । जानि समतारसभीनो॥ मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि। । सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजालमांहि फसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे । । आदि जंतुको प्राण हराण्यो॥ ते सब जीवसमूह सुनो मेरी यह । * अरजी । भवभवको अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥ ५॥ ४ चतुर्थ स्तवनकर्म । नमों ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको । संभव * भवदुखहरण करण अभिनंद शर्मको । सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर । पद्मप्रभ पद्माभ मानि भवभीति प्रीति । धर॥१६॥श्रीसुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्धकर ।श्रीचं द्रप्रभ चंद्रकांतिसम देहकांतिधर ॥ पुष्पदंत दमि दोषकोश . भविपोष रोपहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोषकर ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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