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________________ * १२ ar... ... ... .... -vvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह * आचै । जाके बंदनथकी बंद्य होवें सुरगनके। ऐसे वीर । * जिनेश वन्दि हूं क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिक षट कर्ममांहि चंदन यह पंचम । बंदों वीरजिनेद्र इंद्रशतवंद्य : वंद्य मम ।। जन्म मरणभय हरो करो अघशांति शांतिमय ।। $ मैं अघकोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ॥ २५ ॥ ई छठा कायोत्सर्ग कर्म। कायोत्सर्ग विधान करूं अंतिम सुखदाई । कायत्यजनमय * होय काय सबको दुखदाई। पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम । उत्तर मैं। जिनगृह वंदन करूंहरू भवपापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूं नमूं मस्तक कर धरिकै । आवर्तादिक क्रिया करू मन वच मद हरिकैं। तीनलोक जिनभवनमाहिं जिन है जु अकृत्रिम । कृत्रिम हैं द्वय अर्द्धद्वीप माहीं वन्दों जिमि ॥ आठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्यानूं । च्यारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जानू । व्यंतर ज्योतिषिमांहि संख्यरहिते जिनमंदिर। ते सब वंदन करूं हरहु , * मम पाप संघकर ।। २८॥ सामायिकसम नाहिं और कोउ। * वैरमिटायक । सामायिकसम नाहिं और कोउ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२९॥ जे भवि आतमकाज*करण उद्यमके धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक *सारी । राग रोप मदमोहक्रोध लोभादिक जे सब । बुध महाचन्द्र विलाय जाय ता कीज्यो अब ॥ ३०॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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